बचा ली लाज

भारत सरकार की ओर से पहले ही इस बात का विरोध किया जा रहा था। विरोध यह हो रहा था कि समान लिंग के लोगों के बीच विवाह जैसा संबंध नहीं होना चाहिए। अदालत को भी इस मसले पर काफी सोच विचार करना पड़ा है। लेकिन अंततः सुप्रीम कोर्ट ने अपना नजरिया साफ कर दिया है।

भारत सरकार की ओर से पहले ही इस बात का विरोध किया जा रहा था। विरोध यह हो रहा था कि समान लिंग के लोगों के बीच विवाह जैसा संबंध नहीं होना चाहिए। अदालत को भी इस मसले पर काफी सोच विचार करना पड़ा है। लेकिन अंततः सुप्रीम कोर्ट ने अपना नजरिया साफ कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट की राय से कम से कम भारतीय संस्कृति की लाज बची है क्योंकि दुनिया के कई अन्य देशों में भले ही शरीर की पूजा होती है, मगर भारत आत्मा का पुजारी रहा है। भारतीयता शरीर की पूजा का विधान नहीं बताती और यही वजह है कि भारतीय लोग विवाह बंधन में बँधने के बाद सात जन्मों तक की कल्पना कर लेते हैं। सात जन्म फिर मिलते हैं कि नहीं इसका पता नहीं है, लेकिन यह कल्पना ही बताती है कि भारतीयता शरीर की पुजारी नहीं रही है।

शारीरिक सौंदर्य के पुजारी

दूसरी ओर पाश्चात्य दुनिया के कई देशों में शरीर की पूजा होती रही है। शारीरिक सौंदर्य के पुजारी ज्यादातर एकाधिक विवाह या विवाहेत्तर संबंधों में यकीन रखते हैं। कमोबेश समलैंगिकता भी शारीरिक पूजा का ही अंग है। ऐसे में यदि किसी को किसी शरीर से आकर्षण है तो उसकी इच्छा पर अदालत ने रोक नहीं लगाई है। दो समलैंगिक लोग एक साथ रह जरूर सकते हैं लेकिन विवाह जैसे बंधन की मान्यता नहीं दी गई है। यदि विवाह का नाम दिया जाता तो कई कानूनी मसले भी खड़े हो सकते थे। इसके अलावा सामाजिक मसलों का उठना भी लाजिमी हो जाता है।

सामाजिक तौर पर कम से कम भारतीय समाज में यही माना जाता है कि वैवाहिक संबंधों के भीतर एक स्थायित्व की कल्पना की जाती है जिसमें दो भिन्न लिंगी लोग आपसी तालमेल से संतान संततियों का बोझ ढोने को सहमत होते हैं। इससे समाज की धारा अविरल बहती रहती है। लेकिन समलैंगिक संबंधों में संतान की अवधारणा नहीं है। और इतना तय है कि हर युवा को कल बूढ़ा होना है। बुढ़ापे में शारीरिक सौंदर्य का कोई मतलब नहीं रह जाता। बीमारियों के घेरे में घिरा बूढ़ा इंसान किसी शारीरिक चाकचिक्य से परे हो जाता है। उसे अपनी आने वाली पीढ़ियों से सेवा की उम्मीद हुआ करती है। यह केवल तभी संभव है जब दो भिन्न लिंग के लोगों के बीच वैवाहिक संबंध हो। शायद इस अड़चन को देखकर ही सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक शादी को मान्यता नहीं दी है।

देश की सबसे बड़ी ताकत

इसके अलावा एक और बात काफी महत्वपूर्ण है। किसी भी देश की सबसे बड़ी ताकत होती है उसकी मानव संपदा। मानव संपदा ही है जो मुल्क की हिफाजत करती है। मानव संपदा के बूते ही किसी देश की आर्थिक तकदीर लिखी जाती है। लेकिन समलैंगिक विवाह में मानव संसाधन विकास की संभावना नहीं के बराबर है। इसके साथ ही समलैंगिक जोड़ों को दत्तक लेने के अधिकार से भी वंचित रखा गया है। ऐसे में यदि इन संबंधों को कानूनी मंजूरी मिल जाती तो संतानोत्पत्ति की राह रुक जाती। इससे मानव संपदा का विकास अवरुद्ध हो जाता।

अंततः यही होता कि देश की आंतरिक सुरक्षा खतरे में पड़ सकती थी। अदालत ने इस मामले में देश को बचाया है। फिर भी संविधान पीठ ने सरकार का रास्ता साफ किया है। यदि केंद्र सरकार चाहे तो इस मसले पर विधेयक ला सकती है लेकिन अदालत ऐसे विवाह की इजाजत नहीं देगी। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि लाज बच गई।

विवाह बंधनसमलैंगिक विवाहसंविधान पीठसुप्रीम कोर्ट