बॉलीवुड और मूल्यों की बात

युवा पीढ़ी इस विचारधारा को अपना रही है जिससे आपराधिक गतिविधियों में तेजी के साथ-साथ अपराध के नए-नए चेहरे भी सामने आ रहे हैं। आज कोई किसी को 36 टुकड़ों में काटकर फेंक देता है तो कोई डिजिटल माध्यम से देश को लूटने में लगा है। बॉलीवुड ने सफर की शुरुआत जिस नजरिए से की थी, शायद वह राह कहीं ओझल हो चुकी है।

देश की आजादी की लड़ाई जब शुरू हुई तो सबसे अधिक जरूरत थी आम लोगों को आजादी का मतलब समझाने की। तब लोगों को चूंकि अंग्रेजों ने शिक्षा से काफी दूर रखा था और बात-बात पर हिंदुस्तानियों पर कोड़े बरसाए जाते थे, लिहाजा तब के भारतीयों में देशप्रेम का भाव जगाने के लिए देसी भाषा में साहित्य लेखन शुरू हुआ। उस देसी भाषा के साहित्य को भी गांव के किसानों या मेहनतकश लोगों में जाकर कुछ लोग पढ़कर समझाया करते थे।

साहित्य के जरिए मातृभूमि को आजाद कराने की जरूरत पर बल देने तथा सभी देशवासियों को एकजुट होकर देश आजाद कराने के लिए संघर्ष की प्रेरणा देने वालों को भी तब की पुलिस गिरफ्तार करती थी। तरह-तरह की यातनाएं दिया करती थी। ऐसे में साहित्य के जरिए देशप्रेम की भावना आम लोगों तक तेजी से पहुंचाना असंभव लगने लगा। तब बॉलीवुड के कुछ खास समझदार लोगों ने प्राचीन भारतीय मूल्यों के आधार पर फिल्में बनाना शुरू किया।

फिल्मों से लाभ यह हुआ कि जगह-जगह लोगों को साहित्य पढ़कर क्रांति के लिए उकसाने की जरूरत कम होती गई। वह काम फिल्मों के जरिए होने लगा। यही वजह है कि 1947 और उसके बाद के कुछ सालों में देशप्रेम पर आधारित फिल्में खूब चलीं। बाद में समाज को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए भी साहित्य के आधार पर फिल्मों का निर्माण किया गया जिनसे आम आबादी को बहुत हद तक लीक पर चलने की तालीम दी जाती रही।

बुराइयों के उन्मूलन की दिशा

समस्या प्रधान फिल्मों के जरिए सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन की दिशा में भी काफी काम किया गया। एक ऐसा भी दौर आया जब फिल्मी कलाकारों की नकल में देश का फैशन बदलने लगा। लोगों के हावभाव भी एलिट सोसायटी की नकल के हिसाब से बदलने लगे। यह सिलसिला जो तब शुरू हुआ वह बदस्तूर जारी है। आज भी बॉलीवुड अपना काम किए जा रहा है। लेकिन एक फर्क नजर आ रहा है। चूंकि साहित्य अपने समय के समाज का दर्पण हुआ करता है, इसलिए आज की फिल्मों में जो कुछ भी परोसा जा रहा है उसे आज के समाज की प्रतिच्छवि ही कहा जाएगा।

लेकिन वे मूल्य अब बदल चुके हैं। जहां दादासाहेब फाल्के, व्ही. शांताराम, के.आसिफ, जेमिनी, एवीएम, बॉम्बे टॉकीज या प्रसाद प्रोडक्शन अथवा विमल राय, आर.के. प्रोडक्शन के जरिए गंभीर सामाजिक समस्याओं को उछाला गया। एक नई दिशा तय की गई। वहीं आज दिशा उल्टी हो गई है। आज का बॉलीवुड अंडरवर्ल्ड की बहादुरी की दास्तान सुनाता है, हिंसा के साथ-साथ अधनंगे दृश्यों को परोसने में लगा हुआ है। जिस फिल्म जगत ने समाज को सही दिशा में ले जाने का प्रण किया था, वह व्यावसायिक जरूरतों के तहत आज समाज को हिंसा, लूटखसोट व नग्नता की सीख दे रहा है।

होश में आए मायानगरी

युवा पीढ़ी इस विचारधारा को अपना रही है जिससे आपराधिक गतिविधियों में तेजी के साथ-साथ अपराध के नए-नए चेहरे भी सामने आ रहे हैं। आज कोई किसी को 36 टुकड़ों में काटकर फेंक देता है तो कोई डिजिटल माध्यम से देश को लूटने में लगा है। बॉलीवुड ने सफर की शुरुआत जिस नजरिए से की थी, शायद वह राह कहीं ओझल हो चुकी है। ध्यान रहे कि साहित्य ही समाज का दर्पण है और फिल्में एक दृश्य साहित्य हैं जिनके जरिए आसानी से लोगों को सही या गलत की सीख दी जा सकती है। देश की युवा पीढ़ी अगर राह भटकेगी तो बॉलीवुड भी इसकी जद में आएगा। होश में आए मायानगरी।

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