दमघोंटू आबोहवा

अगर दिवाली या किसी दूसरे त्यौहार के नाम पर पटाखे जलाए जाते हैं तो उनका भी असर वायुमंडल पर ही होगा। अब सवाल है कि जब हवा ही जहरीली हो चुकी हो तो इसे पटाखे जलाकर और अधिक जहरीली बनाने का कोई मतलब है क्या। ज्यादातर लोग इस सवाल से कन्नी काटने में लग जाएंगे।

उत्सवों का मौसम चल रहा है। जाहिर है कि खुशियां मनाने के लिए तरह-तरह के आयोजन किए जाएंगे। रोशनी का खास इंतजाम किया जाएगा और शौकीन लोग पटाखे भी जलाएंगे। आखिर इंसान खुशी के मौके भी तो तलाशता ही रहता है। लेकिन इस खुशी के मौसम में सबसे दुखद बात यह है कि भारत की राजधानी ही फिलहाल हाँफ रही है। समूचे दिल्लीवासी परेशान हैं। सरकार भी चाहकर कोई ऐसा सूत्र नहीं निकाल पा रही है जिससे दिल्ली के लोगों को राहत हो।

ऐसे में अगर दिवाली या किसी दूसरे त्यौहार के नाम पर पटाखे जलाए जाते हैं तो उनका भी असर वायुमंडल पर ही होगा। अब सवाल है कि जब हवा ही जहरीली हो चुकी हो तो इसे पटाखे जलाकर और अधिक जहरीली बनाने का कोई मतलब है क्या। ज्यादातर लोग इस सवाल से कन्नी काटने में लग जाएँगे। फिर भी देश को यह जरूर सोचना चाहिए कि ऐसे दमघोंटू माहौल में पटाखे जलाने की इजाजत का असर क्या होगा।

दरअसल समाज को चलाने के लिए कुछ कायदे-कानून तय किए गए हैं। लोकतंत्र को चलाने के लिए भी सदनों में तरह-तरह के कानून बनाए जाते हैं। लेकिन हर कानून या हर कायदे का सीधा संबंध इंसान से होता है। इंसान ही अगर दुखी या बीमार हो जाए तो किसी उत्सव का कोई मायने नहीं रह जाता। सुप्रीम कोर्ट की ओर से भी बार-बार हिदायत दी जा रही है कि सरकार इस मामले पर गंभीरता से विचार करे।

पूरे देश की हवा जहरीली

दिल्ली के अलावा जाड़े के दिनों में पूरे देश की हवा जहरीली हो जाती है। हर साल इसमें जहरीले पदार्थों की मौजूदगी पिछले साल की तुलना में ज्यादा हुआ करती है। इसकी बस एक ही वजह है। वजह यह है कि आम आदमी लापरवाह हो गया है। लापरवाही ऐसी है कि लोग यही समझते हैं कि दूसरे मरते हैं तो मरें, हम तो सुखी हैं, हमें अपनी मर्जी के हिसाब से मस्ती करनी है। लेकिन यही सोच सबको अंधेरे की ओर लिए जा रही है।

ध्यान रहे कि समाज से ऊपर कोई नहीं है। किसी को भी उत्सव मनाने से मना नहीं किया जा सकता लेकिन घातक चीजों के इस्तेमाल से ही उत्सव मनाए जाएंगे, ऐसा भी कोई विधान नहीं है। पटाखे जलाने की परंपरा काफी पुरानी हो सकती है लेकिन जब संकट की घड़ी हो, जब हवा जहरीली हो रही हो, तो पटाखों से तौबा करना कोई बेवकूफी नहीं कही जाएगी।

दीए जलाने की परंपरा

दीपावली का त्यौहार बगैर पटाखों के भी मनाया जा सकता है। दरअसल दीए जलाने की परंपरा के पीछे का वैज्ञानिक दर्शन तो समझ में आता है लेकिन खुशी के मौके पर पटाखे जलाकर ध्वनि या वायु प्रदूषण बढ़ाने की सोच के पीछे की कोई वैध वजह समझ में नहीं आती। आज अगर केवल दिल्ली हाँफ रही है और देश के बाकी हिस्सों के लोग  समझते हैं कि हम निरापद हैं, तो यह गलत है।

दिल्ली में दम घुंटेगा तो इसका असर पूरे भारत पर पड़ेगा। एक तो ऐसे ही पराली जलाने वाले किसानों की नकेल कसी नहीं जा सकी है, ऊपर से अगर पटाखे जलाने की जिद पर भी समाज अड़ा रहा तो भावी पीढ़ी के लिए पर्यावरण की सूरत कैसी होगी, इस त्यौहारी मौसम में इसका भी ख्याल जरूर रखना चाहिए। बेहतर यही है कि त्यौहार मनाएं, खुशियां बाँटें लेकिन स्वस्थ रहें। और इसके लिए जरूरी है कि प्रकृति को यथासंभव स्वस्थ रखने का प्रयास करें।

आम आदमीदीपावली का त्यौहारपर्यावरण की सूरतसंपादकीयसुप्रीम कोर्ट