देर से मगर दुरुस्त

दिल्ली की ओर से बार-बार सुझाया जाता रहा है कि चीन किसी का दोस्त नहीं हो सकता, उसे सिर्फ अपने फायदे की पड़ी रहती है। लेकिन भारत की बात शायद तब श्रीलंकाई सरकार को समझ में नहीं आ रही थी।

अपने यहां एक मशहूर कहावत है जिसमें कहा जाता है देर आयद, दुरुस्त आयद। देर से ही आए मगर सही सलामत लौट आए। इस कहावत के उल्लेख का सीधा संबंध अपने पड़ोसी श्रीलंका से है। श्रीलंका की सोच जिस तरह बदली है, उसका असर बांग्लादेश, मालदीव,नेपाल और पाकिस्तान पर भी देर-सबेर जरूर पड़ेगा। दरअसल 1980 के दशक की राजनीतिक घटनाओं के कारण श्रीलंका अचानक चीन की गोद में जा बैठा था। उसे आसान किश्तों में चीन ने कर्ज मुहैया कराया और वह खुद को चीन के भरोसे काफी ताकतवर और उन्नत देश मानने लगा। उसे दिल्ली की ओर से बार-बार सुझाया जाता रहा है कि चीन किसी का दोस्त नहीं हो सकता, उसे सिर्फ अपने फायदे की पड़ी रहती है। लेकिन भारत की बात शायद तब श्रीलंकाई सरकार को समझ में नहीं आ रही थी।

अगर पिछली राजपक्षे सरकार को आर्थिक तंगी के कारण वहां की आम आबादी ने घर से निकाल नहीं फेंका होता तो शायद श्रीलंका के शासकों को देश की आम आबादी के दर्द का एहसास भी नहीं होता। लेकिन गुस्साए लोगों ने राजपक्षे सरकार को बोरिया-बिस्तर बाँधने पर मजबूर कर दिया। अब आई है रनिल विक्रमसिंघे की सरकार।

पड़ोसी मुल्क को बचाने की कोशिश

पिछली सरकारों की गलतियों से सबक लेते हुए विक्रमसिंघे ने हाल ही में दिल्ली का जो रुख किया उसमें श्रीलंका को भारत की ओर से 4 बिलियन डॉलर की मदद दी गई है। इसके अलावा आईएमएफ की ओर से भी 2.9 बिलियन डॉलर की राहत देकर पड़ोसी मुल्क को आर्थिक रूप से बचाने की कोशिश हो रही है। ज्ञात रहे कि जो मदद आईएमएफ की ओर से दी गई है उसे बगैर अमेरिकी इशारे के हासिल नहीं किया जा सकता था। और श्रीलंका पिछले कई दशकों से जिस तरह चीन के साथ गलबहियां खेलता रहा है, उससे अमेरिका भी चिंतित था।

सबसे खतरनाक बात यह रही कि चीन ने कर्ज के बोझ तले श्रीलंका को कुछ इस कदर दबा रखा है कि हिन्द महासागर में चीन की चौधराहट का चाहकर भी श्रीलंका जवाब नहीं दे पा रहा है। खैर, गनीमत है कि अब पड़ोसी मुल्क की तंद्रा टूटी है और उसने भारत के साथ अपने परंपरागत और सांस्कृतिक संबंधों को दुबारा मजबूत करने की दिशा में काम करना शुरू किया है। इसी के तहत अब भारत से श्रीलंका के बीच एक पुल मार्ग के निर्माण का प्रस्ताव आया है।

दोस्ती का हाथ

जाहिर है कि अगर भारत के धनुष्कोडि या किसी दूसरे स्थान से श्रीलंका के उत्तरी इलाके तक समुद्र पर कोई पुल बना दिया जाए तो इससे श्रीलंकाई सरकार के साथ ही भारतीय मूल के उन तमिलों को भी लाभ होगा जिन्हें श्रीलंका में पिछले दो सौ सालों से रहने का गौरव हासिल है। दिल्ली में जिस तरह विक्रमसिंघे ने पुल बनाने का प्रस्ताव दिया है उससे लगता है कि भारत के साथ वह अपने रिश्तों को स्थायित्व देने का प्रयास कर रहे हैं। भारत ने भी दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया है। लेकिन रिश्तों में आई खटास और लंबे समय के दुराव को इतनी जल्दी समेटा नहीं जा सकता।

श्रीलंका सरकार को ऐसे कुछ कदम उठाने होंगे जिससे भारतीय पक्ष को भी लगे कि चीन के प्रभाव से अलग अब कोलंबो किसी दूसरी दिशा में ताकने लगा है। इसके साथ ही विक्रमसिंघे की सरकार को श्रीलंका के उत्तर के अलावा दक्षिणी हिस्से को भी तमिल आबादी के लिए खुला छोड़ना चाहिए। आखिर जो कौम जिस देश में सरकारी तौर पर दो सौ साल से रह रही है, वहां की सरकार को टैक्स दे रही है, वहां के विकास में सहयोग कर रही है-उसकी नीयत पर अविश्वास नहीं होना चाहिए। बहरहाल, श्रीलंकाई हृदय परिवर्तन का स्वागत है।

EDITORIALअशोक पांडेयविक्रमसिंघेश्रीलंकाश्रीलंकाई सरकारसंपादकीय