जाति आधारित जनगणना

जाति आधारित जनगणना के समर्थन या विरोध की वजह वोटों के उतार-चढ़ाव से जुड़ी है। किसी खास समुदाय के विकास या पतन की परवाह नहीं है। ऐसे में आम मतदाता क्या सोच रहा है, उसके साथ फिलहाल क्या होने जा रहा है-यह आने वाला वक्त ही बताएगा।

किसी भी लोकतांत्रिक देश की सबसे बड़ी पूंजी वहां की आबादी हुआ करती है क्योंकि यह आबादी ही है जिसके कंधों पर सरकार चुनने का दायित्व होता है। भारत इस मामले में सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कहा जा सकता है क्योंकि यहां की आबादी दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश की तुलना में अधिक है। ऐसे में भारतीय सियासत से जुड़े लोगों की नजर जैसे सरकारी कुर्सी दखल करने पर लगी होती है, वैसे ही अपने समर्थकों की संख्या बढ़ाने की चिंता भी उन्हें सताती रहती है। समर्थकों की संख्या बढ़ाने के लिए हर सियासी दल भारत में कोई न कोई जाल बुन रहा होता है। एक मदारी की तरह सियासी दलों की ओर से भी आम लोगों को लुभाने का सिलसिला चलता है जिसमें लोग खुद-ब-खुद तमाशा देखने के लिए चले आते हैं।

शह और मात की बाजी

अब चूंकि 2024 के आम चुनाव लगभग सामने आ चुके हैं तथा भारत के राजनीतिक दलों की ओर से परस्पर शह और मात की बाजी खेली जा रही है तो इसमें हर खिलाड़ी अपने-अपने तरीके से खेलने लगा है। इसी खेल के तहत कोई चाहता है कि पूरे भारत की आबादी का लेखाजोखा जातियों के आधार पर तैयार किया जाए तो कोई इसका पुरजोर विरोध कर रहा है। इसी क्रम में बिहार की नीतीश कुमार सरकार भी जातीय आधार पर प्रदेश में जनगणना कराना चाह रही थी लेकिन अदालती अड़चन के कारण यह काम ठप्प हो गया था। अदालत ने अब बिहार सरकार को इस काम के लिए हरी झंडी दिखाई है जिससे स्वाभाविक है कि बिहार सरकार की बाँछें खिल उठी हों। बाँछें खिलने की वजह भी है।

दरअसल देश की आजादी के बाद से ही प्रयास किया जाता रहा है कि जातियों के बंधन को तोड़ दिया जाए। लेकिन शायद राजनीतिक मजबूरियों ने नेताओं को हमेशा ऐसा करने से रोके रखा। अगड़ी औप पिछड़ी जाति के नाम पर वोटों की बंदरबाँट जरूर होती रही लेकिन अलग-अलग जातियों के समूह का कोई ठोस आँकड़ा नहीं बन रहा था। दरअसल ब्रिटिश शासन में ही 1931 के आसपास आंशिक रूप से जातियों पर आधारित एक सर्वे किया गया था जिसमें पिछड़ी, अति पिछड़ी व अन्य पिछड़ी जातियों की कुल संख्या तकरीबन 52 फीसदी थी।

जाति आधारित जनगणना

जातियों पर आधारित राजनीति के कारोबारी इन्हीं आँकड़ों के आधार पर बिसात बिछाने की कोशिश में हैं। जिन्हें हिन्दूवाद की सियासत करनी है, उन्हें कतई पसंद नहीं कि जातियों के आधार पर जनगणना की जाए। उन्हें इस बात की चिंता सताती है कि जिस समुदाय को जातियों की दीवार से बाहर निकाल कर एक वृहत्तर हिन्दू परिवार का सदस्य बताया जा रहा है, उन्हें अगर फिर से जातियों का आईना दिखाया गया तो शायद हिन्दुत्व को झटका लगेगा। दूसरी सोच के कायल राजनेताओं का मानना है कि ओबीसी समुदाय से जुड़े लोगों का पूरा आँकड़ा हासिल हो जाए तो इस समुदाय को एक वर्ग विशेष (अथवा अगड़ी जातियों) के कथित प्रपंच से वाकिफ कराया जा सकता है। इससे दूसरी सोच के नेताओं को सियासी लाभ हो सकता है।

मतलब यह कि जाति आधारित जनगणना के समर्थन या विरोध की वजह वोटों के उतार-चढ़ाव से जुड़ी है। किसी खास समुदाय के विकास या पतन की परवाह नहीं है। ऐसे में आम मतदाता क्या सोच रहा है, उसके साथ फिलहाल क्या होने जा रहा है-यह आने वाला वक्त ही बताएगा। फिलहाल इस मामले में अदालती हरी झंडी पाने वाली नीतीश कुमार-तेजस्वी यादव की सरकार को भविष्य के लिए अग्रिम बधाई।

EDITORIALअशोक पांडेयजाति आधारित जनगणनाब्रिटिश शासनलोकतांत्रिक देशसंपादकीय