जरा देख के चलो

ईमानदारी से प्रशासन चलाने की जरूरत पर यदि ध्यान दिया जाए तो अदालतों का बोझ कम हो सकता है तथा आम लोगों के मुकदमों की सुनवाई भी जल्दी हो सकती है। ऐसा तभी होगा जब सरकार चलाने वाले संविधान का सम्मान करें।

आजाद भारत में लोकशाही को सही तरीके से चलाने के लिए संविधान की रचना की गई। संविधान को भी लकीर का फकीर नहीं बनाया गया। उसमें समय-समय पर ईमानदारी से जरूरी बदलाव करने के प्रावधान भी रखे गए हैं। इन सारी बातों के बावजूद हाल के कुछ दशकों में यही देखा जाता है कि चाहे किसी भी दल की सरकारें राज्य में या केंद्र में बनती हैं, उन सरकारों का कामकाज बहुत निरपेक्ष नहीं हो पाता। और प्रशासनिक निरपेक्षता के अभाव के कारण हर बार सरकार के कामकाज में अदालतों को टोकाटोकी करनी पड़ती है।

बल्कि यह कहना गलत नहीं होगा कि सरकारी गफलतों को दुरुस्त करने में ही अदालतों का ज्यादा समय गुजर जाता है। कभी किसी सांसद या विधायक की सुनवाई हो रही होती है तो कभी किसी सरकार के खिलाफ ही अदालत में फैसले हो रहे होते हैं।  मतलब यह कि ईमानदारी से प्रशासन चलाने की जरूरत पर यदि ध्यान दिया जाए तो अदालतों का बोझ कम हो सकता है तथा आम लोगों के मुकदमों की सुनवाई भी जल्दी हो सकती है। ऐसा तभी होगा जब सरकार चलाने वाले संविधान का सम्मान करें।

संविधान का सम्मान

संविधान का सम्मान सरकार में बैठे लोग किस हद तक करते हैं, इसकी एक ताजा बानगी गुजरात में देखी जा सकती है। गुजरात दंगों के दौरान बिल्किस बानो के साथ अमानवीय हरकतें करने की खबरों के आलोक में कुछ लोगों को गिरफ्तार किया गया। लेकिन पिछले साल स्वाधीनता दिवस के मौके पर उस मामले से जुड़े सभी लोगों को चौदह साल की सजा काट लेने के बाद रिहा कर दिया गया। अब सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार से सवाल किए हैं तो सरकार बगलें झाँक रही है।

सुप्रीम कोर्ट ने पूछा है कि क्या उम्रकैद की सजा काट रहे सभी अभियुक्तों को 14 साल के बाद छोड़ दिया जाता है। यदि ऐसा नहीं है तो इस अपराध में शामिल लोगों को कैसे छोड़ दिया गया। उल्लेखनीय है कि सामूहिक दुष्कर्म के इस मामले में अदालत ने सभी मुलजिमों को मृत्युदंड दिया था, जिसे बाद में उम्रकैद में बदल दिया गया था। अदालत ने राज्य सरकार से कुछ कठोर सवाल पूछे हैं।

ईमानदारी पर सवाल

गुजरात सरकार से पूछा गया है कि अगर यदि कैदी खुद को सुधार कर दुबारा समाज में जीने का हक मांगते हैं तो यह सुविधा दूसरे कैदियों को भी क्यों नहीं दी जाती। इस मामले में सजा काट रहे 11 लोगों को रिहा करने के लिए जेल कमेटी का गठन ही आखिर क्यों किया गया तथा जिस अदालत ने उन्हें सजा सुनाई थी, उससे राय नहीं लेकर किसी अन्य अदालत से उनकी रिहाई की मंजूरी क्यों मांगी गई। जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार की ईमानदारी पर सवाल उठाया है। ऐसे सवालों से देश के हर राज्य में सरकारें व प्रशासक घिरे हुए हैं। हैरत की बात है कि प्रशासकों की अनैतिकता का आईना दिखाने वाली अदालतों पर ही राजनेता इल्जाम लगाने लगते हैं।

आजकल कुछ इतने दांभिक लोग राजनीति में आ चुके हैं जो खुद की प्रशंसा में न्यायपालिका को ही बुरा भला कहने लगते हैं। शुक्र है कि न्यायपालिका ने संविधान की डोर थाम रखी है। इसीलिए देश की अवाम भी राजनेताओं से ऊबने लगी है लेकिन अदालती फैसलों पर उसे भरोसा है। सुप्रीम कोर्ट ने फिर से निष्पक्षता की कीमत पर घिनौना खेल खेल रही सरकारों व राजनीतिज्ञों को सबक सिखाने की कोशिश की है।

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