प्राणघाती सियासत

मसला एक छात्र के मरने का है, इसे सियासत से जोड़ना दुर्भाग्यपूर्ण है। कोई भी राजनीतिक सिद्धांत किसी को अपमानित या दंडित करने की छूट नहीं देता।

बंगाल में 2011 में जब वाममोर्चा की सरकार के सफाए के बाद ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस की सरकार बनाई थी तो उनका नारा था- राज्य में परिवर्तन लाना है। तब सीएम ने ऐलान किया था कि बदला नय बोदोल चाई मतलब बदले की कार्रवाई नहीं करके राज्य की नई सरकार बदलाव करने पर ध्यान देगी। बदलाव कई मायनों में हुआ भी है। यह प्रक्रिया आज भी जारी है। लेकिन शिक्षा प्रतिष्ठानों में बंगाल में चल रही राजनीति को बंद करने की जितनी भी कोशिश अबतक होती रही है, उसका खास असर नहीं देखा जा सका।

वामपंथी सरकार के जमाने में शिक्षा प्रतिष्ठानों की जैसी हालत थी, आज भी कमोबेश वही माहौल है। आज भी छात्र यूनियन के चुनाव में ही सिरफुटौव्वल की नौबत आती है, गोली चल जाती है, बम के धमाके सुने जाते हैं। आजिज आकर सरकार ने पिछली बार छात्र यूनियन के चुनाव पर ही रोक लगा दी थी।

मानसिकता नहीं बदली

आशय यह है कि सरकार जरूर बदली है लेकिन शिक्षा प्रतिष्ठानों में बैठे कुछ लोगों की मानसिकता नहीं बदली है। आज भी बंगाल के नामचीन शैक्षणिक संस्थानों में रैगिंग की घटनाएं हो रही हैं और आज भी कुछ निरीह छात्रों को रैगिंग से अपमानित होकर अपनी जान गंवानी पड़ रही है। ताजा घटना कोलकाता के विश्वविख्यात जादवपुर विश्वविद्यालय से जुड़ी है जिसमें एक छात्र के साथ रैंगिंग कई गई। कथित तौर पर उस छात्र ने कई लोगों से शिकायत भी की मगर उसकी बात कहीं नहीं सुनी गई।

प्रबंधन की नजर नहीं

अंत में उसे संबंधित विश्वविद्यालय के हॉस्टल से नीचे छलांग लगाकर अपनी जान देनी पड़ी है। पूछा जा सकता है कि विद्या क्या इसीलिए हासिल की जाती है कि किसी की मनोदशा का सम्मान नहीं किया जाए। क्या सीनियर होना ही किसी जूनियर के साथ अत्याचार करने का लाइसेंस है। क्या विश्वविद्यालय परिसर में जो कुछ होता रहा है, उस पर प्रबंधन की नजर नहीं थी। यदि ऐसा कोई दावा करता है तो गलत है क्योंकि पश्चिम बंगाल के ज्यादातर शिक्षण संस्थानों की इस मामले में बदनामी हो रखी है।

ऐसी ही घटनाएं आईआईटी खड़गपुर में भी अतीत में होती रही हैं। इसके अलावा बंगाल इंजीनियरिंग विश्वविद्यालय भी ऐसी घटनाओं से अछूता नहीं रहा है। लेकिन रैगिंग जैसी घटनाएं होती रहीं, छात्र-छात्राओं के साथ अत्याचार होता रहा और सरकारों की ओर से केवल कागजी कार्रवाइयां होती रहीं।

उधम मचाने का काम

जादवपुर विश्वविद्यालय का पूरी दुनिया में नाम है। राज्य से वाममोर्चा की सरकार के सफाए के बावजूद इस विश्वविद्यालय में वामपंथी मानसिकता के अध्यापकों तथा विद्यार्थियों की बहुतायत है। किसी की राजनीतिक सोच को बदला नहीं जा सकता। लोकतंत्र में किसी भी विचारधारा के पृष्ठपोषक लोग हो ही सकते हैं। लेकिन कहा यही जा रहा है कि वामपंथी और कुछ अतिवामपंथी सोच के कायल विद्यार्थियों ने यहां उधम मचाने का काम किय़ा है।

इसकी मिसाल के तौर पर कुछ साल पहले केंद्रीय मंत्री रहे बाबुल सुप्रियो के विश्वविद्यालय में घिरे होने की घटना को ही लिया जा सकता है। उस घटना में बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल जगदीप धनखड़ को हस्तक्षेप करना पड़ा, तब जाकर केंद्रीय मंत्री की छात्रों के हाथों रक्षा हो सकी थी।

इंसाफ चाहिए

अब खुद ममता बनर्जी ने ही कह दिया है कि मृत छात्र के साथ वामपंथियों ने शरारतपूर्ण हरकत की है। मसला एक छात्र के मरने का है, इसे सियासत से जोड़ना दुर्भाग्यपूर्ण है। कोई भी राजनीतिक सिद्धांत किसी को अपमानित या दंडित करने की छूट नहीं देता। जरूरत है कि राजनीतिक रंग से इतर प्रशासन उन लोगों को सामने लाया जिनकी रैगिंग से तंग आकर छात्र ने अपनी जान दे दी है। मृत छात्र को यदि सही इंसाफ दिलाया गया तो जाहिर है कि इस तरह की गंदी हरकतों का हमेशा के लिए सफाया हो जाएगा। सियासत नहीं, इंसाफ चाहिए।

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