शहीद कहलाने का मतलब

कारगिल की लड़ाई में भारत की लाज बचाने को लिए जिन वीरों ने अपनी जान गँवाई थी, उन्हें कारगिल दिवस पर याद करने के बजाय राजनीतिक दलों की चिंता अपने-अपने वोट बैंक को किसी भी कीमत बढ़ाने की रही। इससे अधम सोच भला क्या हो सकती है।

एक शायर ने बहुत पहले लिखा था-
वतन पर जो फिदा होगा, अमर वो नौजवां होगा।
रहेगी जब तलक दुनिया, ये अफसाना बयां होगा।।

अफसाने को बयान करना तो दूर आज मुल्क की हालत ऐसी हो गई है कि शहीदों की परिभाषा तक बदल दी गई है। कल तक जो देश की अस्मिता के लिए, मातृभूमि की गरिमा के लिए अपना लहू बहाते थे-उन्हें शहीद कहा जाता था। लेकिन आजादी के बाद सियासी झमेले में या किसी खास दल का वोट बैंक बढ़ाने में भी किसी से विवाद में कोई मर जाता है तो उसे उस खास पार्टी के लोग शहीद का ही दर्जा दे दिया करते हैं। कारगिल की लड़ाई में भारत की लाज बचाने को लिए जिन वीरों ने अपनी जान गँवाई थी, उन्हें कारगिल दिवस पर याद करने के बजाय राजनीतिक दलों की चिंता अपने-अपने वोट बैंक को किसी भी कीमत बढ़ाने की रही। इससे अधम सोच भला क्या हो सकती है।

शहीद का दर्जा

यह बीमारी किसी एक दल या संगठन की नहीं, कमोबेश सबमें घर करती जा रही है। किसी दलीय हित के लिए संघर्ष में मारे गए लोगों को अगर शहीद का दर्जा दिया जाता है तो फिर सियाचिन की हडिडुयां कँपाने वाली ठंड में दुश्मन की गोली सीने पर झेलकर भारतमाता की जयकार करने वालों को क्या कहा जाए-इस पर भारतीय समाज को ही सोचना होगा। हो सके तो इन राजनीतिक दलों की सोच में बदलाव लाने की कोशिश करनी होगी जो आम जनता ही कर सकती है। वह वक्त आ गया है जब देश की अवाम को यह तय करना होगा कि शहीद के दर्जे में किसे शामिल किया जाए।

शहादत को नमन

जब कारगिल का जिक्र शुरू हुआ है तो उन तमाम जवानों की शहादत को नमन करने के साथ ही देश को यह भी समझ लेना होगा कि वह ऐसी लड़ाई थी जो बगैर किसी तैयारी के हुई थी तथा भारत पर जबरन थोप दी गई थी। जनरल परवेज मुशर्रफ को लगता था कि वह अपनी पिद्दी सेना के छापामारों को कारगिल और द्रास सेक्टर में चुपके-चुपके दाखिल कराकर भारतीय फौज को घुटनों पर ला देंगे। लेकिन भारतीय जवानों का वह जज्बा ही था जिसने मुशर्ऱफ की फौज को उल्टे पाँव भागने को मजबूर कर दिया था- वह भी बगैर किसी लंबी तैयारी के। उन जवानों के बलिदान की जितनी भी सराहना की जाए, कम है। उन्होंने वतन पर अपनी जान लुटा कर सच्चे शहीद का दर्जा तो हासिल किया ही इसके साथ-साथ दोनों पड़ोसियों को भी एक प्रखर संकेत भी दे गए।

अफसोस की बात

संकेत यह कि भारतीय फौजी किसी तैयारी के बगैर भी अगर दुश्मन ने जंग थोप दी तो उसका माकूल जवाब देने को हर क्षण तत्पर हैं। कारगिल के वीरों की जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम है। लेकिन अफसोस की बात है कि कारगिल दिवस पर ही भारत से सियासी दलों की ओर से उन वीरों को वह श्रद्धांजलि नहीं हासिल हो सकी, जिसके वे सच्चे हकदार थे। अपनी-अपनी पार्टी के नाम पर कैडर खड़े करने की ताक में लगे राजनीतिक दलों को हो सकता है कि यह नागवार लगे कि वे अपने दल के जिन लोगों को शहीद बताने की कोशिश करते हैं, उन्हें देश शहीद नहीं मानता।

शहीद का दर्जा या यह शब्दावली देश की सीमाओं की रक्षा में जान गँवाने वालों के लिए है। दलीय या गुटीय संघर्ष में किसी राजनीतिक दल के वोटरों की संख्या में मारे गए लोगों को क्या कहा जाए- हो सके तो इसके लिए सियासी दल मिलकर कोई नई शब्दावली तलाशें। शहीदों की हेठी न करें।

EDITORIALअशोक पांडेयकारगिल दिवससंपादकीयसूत्रकार समाचार