व्यक्तिपूजक समाज

बंगाल में पंचायत चुनाव हो रहे हैं। इसी दौरान तृणमूल कांग्रेस के अखिल भारतीय महासचिव तथा डायमंड हार्बर से लोकसभा के सांसद व मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी का कहना था कि परिवारवाद कहां नहीं है। उनका दावा था कि जिस परिवारवाद की शिकायत आमतौर पर भाजपा के लोग किया करते हैं, वे भी इस बीमारी से अछूते नहीं हैं। अभिषेक का दावा यह भी है कि भाजपा पहले अपने परिवारवाद को तौबा कर ले तो बाकी के लोग भी उसी नक्शेकदम पर चल पड़ेंगे। इस मामले में अभिषेक की बातों से सहमत हुए बिना नहीं रहा जा सकता। कमोबेश परिवारवाद की शिकार हर राजनीतिक पार्टी जरूर रही है। लेकिन परिवारवाद को भी अगर सही तरीके से परिभाषित किया जाए तो लगता है कि इसमें केवल उन दलों की ही गलती नहीं है जिन्होंने परिवार के लोगों को ही अपना उत्तराधिकार सौंपा है। इसमें दलों के साथ ही आम लोगों की भी गलती है।

कांग्रेस पर अगर नेहरू-गांधी परिवार के नाम पर सियासत करने या परिवारवाद को चलाने का आरोप लगा तो बाद में कांग्रेस का विरोध करने वाले भी उसी कतार में खड़े मिले। गौरतलब है कि जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति से निकले लालू प्रसाद यादव भी कांग्रेस के धुर विरोधी थे, समाजवादी थे। लेकिन जब सत्ता मिली तो बिहार में सबसे योग्य नेता के तौर पर अपने बाद उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को ही चुना। लालू के सारे सगे-संबंधी भी एक-एक करके नेता बनते चले गए। यूपी में मुलायम सिंह यादव भी परिवारवादी सियासत के विरुद्ध थे लेकिन वक्त आने पर अपने पूरे खानदान को ही सियासत में झोंक कर समाजवादी पार्टी को परिवार से जोड़ दिया।

एचडी देवगौड़ा, बीजू पटनायक, चौधरी देवीलाल, चौधरी चरण सिंह, एम.करुणानिधि, एन टी रामाराव, शिबू सोरेन, ममता बनर्जी, बाल ठाकरे, शरद पवार जैसे कई नाम हैं जिन्होंने अपने बाद अपने परिवार के लोगों को ही अपना सिय़ासी उत्तराधिकारी बना दिया है। भाजपा इसका विरोध करती रही है। उसका मानना है कि किसी एक ही परिवार को लोकतंत्र में देश चलाने का काम क्यों दिया जाए। सुनने में तो बात अच्छी लगती है लेकिन शायद यह उतनी व्यावहारिक नहीं है। इसकी वजह यह है कि राजनीति में आने से ज्यादातर लोग कतराते हैं। इस काजल की कोठरी में कई लोगों को दागदार होते देखा जा चुका है। शायद ऐसे लोगों के अंजाम देखकर ही नई पीढ़ी के नए लोग सियासत से दूर रहने की कोशिश करते हैं। ऐसे में नेताओं को ले-देकर अपने इर्द-गिर्द अपने ही परिवार के लोग दिखते हैं।

बेहतर तो यही है कि जनता के मूड को भी समझा जाए। जनता ऐसी रही है जिसे व्यक्तिपूजा की आदत-सी हो गई है। यही वजह है कि देश के ज्यादातर राज्यों में कोई भी सरकार जब एक बार आ जाती है तो सरकार के भक्तों की संख्या तेजी से बढ़ने लगती है। भक्तों की कोशिश होती है कि हर पांच साल बाद होने वाले चुनावों में उनकी पसंदीदा पार्टी की ही सरकार बने। जनता यह नहीं समझ पाती कि संविधान के अनुसार जब पांच साल बाद देश के सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च करके चुनाव कराए जा रहे होते हैं तो क्या हर्ज कि हर बार सरकार को बदल दिया जाए। जनता नहीं समझ पाती, क्योंकि उसे समझने भी नहीं दिया जाता। नहीं समझ पाती क्योंकि उसमें सदियों की गुलामी ने व्यक्तिपूजा करने की आदत डाल दी है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि परिवारवाद की भले निंदा की जाए लेकिन व्यक्तिपूजकों की जबतक मानसिकता नहीं बदलेगी तबतक परिवारवाद जिंदा रहेगा।

EDITORIALअशोक पांडेयजयप्रकाश नारायणममता बनर्जीमुलायम सिंह यादवराबड़ी देवीलालू यादवव्यक्तिपूजक समाजसंपादकीय