स्वतंत्रता संग्राम के अमर प्रहरी : वीर कुँवर सिंह

वीर कुँवर सिंह जी, 1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम में आकस्मिक रूप से भाग नहीं लिये थे बल्कि एक दशक पूर्व ही सोनपुर मेले में समान विचार वाले वीर सपूतों मंत्रणा करके मुक्ति संग्राम की योजना बना चुके थे । वे गिरफ्तार हो सकते थे, परन्तु उनकी लोकप्रियता के कारण सरकार ने इस् की अनुमति नहीं दी थी। 1857 ई. में यह चिर प्रतीक्षित विद्रोहाग्नि फूट पड़ी। बिहार में रोहिणी (देवघर) में सर्वप्रथम 12 जून 1857 को तीन विद्रोही सैनिकों को फांसी दी गई।

 

बाबु कुँवर सिंह जी एक महान योद्धा, पराक्रमी वीर लौहपुरुष थे

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के कालखण्ड में स्वदेश, स्वधर्म के प्रति स्वाभिमान, अगाध प्रेम, अटूट निष्ठा, अदम्य साहस, अकुन्ठ्य त्याग, अतुलनीय पराक्रम और अविस्मरणीय तथा अकल्पनीय उत्सर्ग-भावना के लिए यदि किसी एक महापुरुष का नाम लेना हो तो निश्चय ही वह यशस्वी नाम प्रातः स्मरणीय वीर कुँवर सिंह का होगा । वे राष्ट्रीय गौरव और पराधीनता को कभी स्वीकार न करने वाली, अपराजेय भारतीय आत्मा के चिरस्वतंत्रता के प्रतीक हैं 1 मातृभूमि के लिए त्याग और बलिदान की उनकी गौरवमयी गाया वर्तमान में उतनी ही गौरवशालिनी, लोमहर्षक, जीवन्त, स्पृहणीय तथा प्रेरणादायिनी है जितनी अतीत में थी। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूत, बिहार के गौरव, शाहाबाद के सपूत एवं जगदीशपुर के शेर बाबू कुँवर सिंह जी का जन्म 1777 ई० में भोजपुर के जगदीशपुर में हुआ था । उनकी माता का नाम पंचरत्न कुँवरी और पिता का नाम शाहबजादा सिंह था जो परमार वंश के राजपुत थे और राजा भोज के बाइसवें वंशज थे । बाबु कुँवर सिंह जी एक महान योद्धा, पराक्रमी वीर लौहपुरुष थे । इसके अतिरिक्त एक उम्दा इंसान, उदार और मिलनसार व्यक्ति थे। 19.12.1856 को एक अंग्रेज अफसर टेलर ने लिखा था “बाबू कुँवर सिंह स्थानीय एवं मूल निवासियों के साथ-साथ अंग्रेजों में भी लोकप्रिय थे। वे जगदीशपुर के समृद्ध जमीनदार थे तथा उच्च वंश में पैदा हुए थे । वे लोकप्रिय, दयालु और उदार व्यक्ति थे तथा अपनी जनता के प्रिय पात्र थे।” इतिहास के पन्नों में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता कि 80 वर्ष का एक वृद्ध योद्धा तलवार उठाया हो और दुश्मनों को परास्त कर वतन को आजादी दिलाई हो। वीर कुँवर सिंह जी, 1857 ई० के स्वतंत्रता संग्राम में आकस्मिक रूप से भाग नहीं लिए थे बल्कि एक दशक पूर्व ही सोनपुर मेले में समान विचार वाले वीर सपूतों से मंत्रणा करके मुक्ति संग्राम की योजना बना चुके थे । वे गिरफ्तार हो सकते थे, परन्तु उनकी लोकप्रियता के कारण सरकार ने इसकी अनुमति नहीं दी थी । 1857 ई० में यह चिर प्रतीक्षित विद्रोहाग्नि फूट पड़ी | बिहार में रोहणी (देवघर) में सर्वप्रथम 12 जून 1857 को तीन विद्रोही सैनिकों को फाँसी दी गई । 4 जुलाई को पीर अली खाँ सहित सोलह बागियों को फाँसी दी गई । 25 जुलाई को दानापुर छावनी के विद्रोही सैनिकों ने मुक्त्तिवाहिनी की रचना की और जगदीशपुर पहुँचकर वीर कुँवर सिंह के नेतृत्व में कार्य करने लगी। फिरंगी सेनापति डनबर से मुक्तिवाहिनी की मुठभेड़ गांगी नाला के पास हुई। डनबर परास्त हुआ और कुँवर सिंह जी शासक घोषित हुए। परन्तु कुछ दिनों बाद सेनापति आयर की विशाल सेना ने उन्हे जगदीशपुर छोड़ने पर मजबूर किया । वे अपनी सेना के साथ उत्तर प्रदेश की ओर कूच किए । रामगढ़, रीवा और बाँदा इत्यादि स्थानों पर मुक्तिवाहिनी का झंडा फहराते हुए वे कालपी होते हुए आजमगढ़ पहुँचे । 22 मार्च 1858 ई० को कुँवर सिंह ने अतरौलिया में अंग्रेजी फौज को पराजित किया । तत्पश्चात् बनारस के पास उन्होंने लौर्ड मार्क को पराजित किया । 17 अप्रैल 1858 ई० को गाजीपुर के पास डगलस और वीर कुँवर सिंह की सेनाओं का मुकाबला हुआ। पराजित डगलस को पीछे हटना पड़ा । विजय पताका फहराते हुए उनकी मुक्तिवाहिनी शिवपुर घाट के पास गंगा नदी पार कर 22 अप्रैल को पुनः जगदीशपुर पहुँच गई। इसी दिन कप्तान लीग्रैंड और उनकी मुक्तिवाहिनी सेनाओं के बीच भीषण संग्राम हुआ। लीलैंड पराजित हुआ और मारा गया काजलयी विजयी वीर कुँवर सिंह ने 23 अप्रैल 1858 ई० को स्वतंत्रता की घोषणा की और अपने हरे झंडे को जगदीशपुर किला पर फहरा दिया।

 

गरीबों के मसीहा थे वीर कुँवर सिंह

वीर कुँवर सिंह एक महान दानवीर, कुशल प्रशासक, गरीबों के मसीहा, समता के अनन्य उद्गाता, सामाजिक न्यायके पक्षधर और साम्प्रदायिक एकता के प्रणेता के रूप में सदियों याद किये जायेंगें। इतिहासकारों ने स्वीकार किया है- कि कुँवर सिंह के सलाहकारों में हिन्दुओं से अधिक मुसलमान थे एवं प्रमुख सेनानायकों में यादव, भूमिहार एवं अन्य जातियों के लोग थे|संत बैसुरिया बाबा से उन्होंने दशभक्ति की प्रेरणा ली थी। उन्होंने अपनी जमीन पर आरा जिला स्कूल का निर्माण किया। कोई भी निर्धन उनके दरबार से खाली हाथ नहीं लौटता था। एक गरीब ब्राह्मण को तो 40 बीघा जमीन दान के रूप में दिए थे। उन्होंने कई स्कूल तथा तालाब बनवाए। आरा जगदीशपुर सड़क तथा आरा विहिया मार्ग का निर्माण किया था। उन्होंने आरा में एक काली मंदिर का निर्माण कर एक विशाल बलिखड्ग की स्थापना की। दुल्हिनगंज और बीबीगंज जैसे शहरों का निर्माण कर एक महान दानवीर और कुशल प्रशासक के रूप में परिचय दिया। वीर कुँवर सिंह जी साम्प्रदायिक एकता के प्रणेता थे। उनके राज्य में धर्म के नाम पर कोई भेदभाव नहीं था। मुहर्रम में ताजिया निकलता था। उन्होंने वीवीगंज, जगदीशपुर और आरा में कई मस्जिदों का निर्माण किया था। उनके राज्य में मुसलमान अफसरों की भरमार थी। सेख गुलाम याहया को मजिस्ट्रेट बनाया था तथा तुराब अली, खादिम अली को कोतवाल । प्रतिदिन लगभग 200 व्यक्ति उनके यहाँ भोजन करते थे। उनकी मजलिस में राज पुरोहित, मौलवी और हरिजन एक साथ बैठते थे। श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन से योगी की व्याख्या यों की है- “आत्म औपम्येन सर्वत्र समम् पश्चित् यो अर्जुन- यही कारण है कि वीर कुँवर सिंह द्वारा की गई क्रांति स्वतंत्रता के लिए की गई जनक्रांति बन गई। अपनी असाधारण वीरता, दानशीलता, उदारता और क्षमाशलता के कारण कुँवर सिंह राम और कृष्ण की तरह मिथकीय चरित्र बन गए। लोकगीतों में उनकी गाथा तेगवा बहादूर के रूप में रची गई है। आज भी होली के शुभ अवसर पर लोग गाते हैं- “बाबू कुँवर सिंह तेगवा बहादुर, बँगला में उड़े ला अबीर।” अँग्रेजों से युद्ध करते समय उनके दाहिने हाथ में गोली लगी थी, उस हाथ को काटकर उन्होंने गंगा की लहरों में सौंप दिया था। गंगा के पानी में आज भी उनके लहू का रंग देखा जा सकता है। समय की पट्टलिका पर कुँवर सिंह जी ने जो अमिट छाप छोड़ा, उसे मानव का कारवाँ सदियों अनुगमन करता रहेगा। मानवता के लिए उनकी देन अपरिसीम है। उनका जीवन मर्यादाओं का जीवन था। हम 23 अप्रैल 1858 के विजय दिवस का स्मरण करते हैं, जिस दिन बाबू साहब ने अंग्रेजी हुकुमत के फ़्लैग को उतारकर अपना झण्डा अपनी राजधानी में फहराया था और उस दिन पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा की थी। 26 अप्रैल 1858 ई0 को अमर सेनानी ने अमरत्त्व प्राप्त किया है। इसके संबंध में ब्रिटिश इतिहासकार सर होम्स ने लिखा है- फिरंगी बहुत सौभाग्यशाली थे कि क्रांति के समय कुँवर सिंह की उम्र 40 वर्ष नहीं थी। वह वृद्ध राजपूत अँग्रेजी सत्ता के खिलाफ आन से लड़ा और शान से मरा। उन्होंने अंग्रेजी सत्ता के कई सेनापतियों को युद्ध में पराजित किया या पीछे हटने के लिए मजबूर किया। उन्होंने कप्तान डनवर और कप्तान नी ग्रॉड को जान से मार डाला, कर्नल मिलमैन और कर्नल डेम्स को पराजित किया, कर्नल लॉर्ड मार्क कर, ब्रिगेडियर लुगार्ड, ब्रिगेडियर डगलस, और कर्नल कैम्ब्रीज को परास्त कर पीछे हटने के लिए मजबूर किया। उन्होंने कप्तान डनवर और कप्तान नी ग्रॉड को जान से मार डाला, कर्नल मिलमैन और कर्नल डेम्स को पराजित किया, कर्नल लॉर्ड मार्क कर, ब्रिगेडियर लुगार्ड, ब्रिगेडियर डगलस, और कर्नल कैम्ब्रीज को परास्त कर पीछे हटने पर मजबूर किया तथा कमिश्नर टेलर एवं मेजर जनरल लायड के वर्खास्तगी का कारण बने। उनकी गौरव गाथा को अछुण्ण रखने के लिए उनकी छवि को कलंक मुक्त रखने के लिए एवं सच्ची श्रद्धांजलि देने के लिए पारस्परिक सौहार्द्र तथा आंतकमुक्त समाज परमावश्यक है। उनका स्मरण बहुत ही प्रासंगिक है। बाबू कुँवर सिंह जी आज हमारे बीच नहीं है; परन्तु इस देश के करोड़ों लोगों के दिलों में स्थान बनाए हुए हैं। ऐसे ही व्यक्तियों के लिए कवि ने लिखा है :- ऐ मौत आकर खामोश कर गई तु मुझे सदियों दिलों में हम गुंजते रहेंगे। राष्ट्र गौरव के चरणों में कोटिशः नमन।

(प्रो. सुरेश प्र. सिंह, पूर्व कुलपति, वीर कुँवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा, बिहार )