महिलाओं का हक

महिलाओं को भागीदार बनाने का राजनीतिक दलों की ओर से झुनझुना जरूर बजाया जाता रहा है, लेकिन हकीकत इससे काफी अलग है। भारतीय लोकतंत्र में महिलाओं की भागीदारी अगर तय करने की ईमानदारी राजनीतिक दलों ने दिखाई होती तो बात कुछ और रहती।

लोकतंत्र में महिलाओं को आधी आबादी का नाम दिया जाता है तथा सारे विकसित देशों में महिलाओं की राजकाज में भागीदारी तय की जा चुकी है। भारत निश्चित रूप से इस मामले में पिछड़ा था इसीलिए बाकायदा महिलाओं को सत्ता में भागीदारी देने के लिए संसद में कानून बनाने की जरूरत आन पड़ी है। यदि ईमानदारी से इस मामले में महिलाओं की हिस्सेदारी का ख्याल किया गया होता तो शायद बगैर कानून बनाए ही उन्हें आधी आबादी का हक हासिल हो चुका होता। लेकिन कहा जा सकता है कि देर आयद, दुरुस्त आयद।

महिलाओं की भागीदारी का आंकड़ा

दरअसल महिलाओं की सत्ता में भागीदारी का आंकड़ा 1997 से ही उपलब्ध है। इसके पहले का कोई डेटाबेस सरकार के पास मौजूद नहीं है। इसके आधार पर पता चला है कि 1997 में भारत में महिलाओं की सत्ता में भागीदारी महज 7.2 फीसदी थी जो आहिस्ता-आहिस्ता बढ़कर अब 15.2 फीसदी के आसपास हुई है। लेकिन ग्लोबल स्तर पर महिलाओं की सत्ता में भागीदारी बगैर कानून बनाए ही 12 फीसदी से 26.7 फीसदी हो चुकी है। महिला प्रतिनिधियों की लोकतंत्र में भागीदारी के मामले में भारत जहां 1997 में 179 में 94 वें स्थान पर था, वहीं आज 185 देशों में भारत का स्थान 141 वां बताया जा रहा है।

इससे साफ है कि महिलाओं को भागीदार बनाने का राजनीतिक दलों की ओर से झुनझुना जरूर बजाया जाता रहा है, लेकिन हकीकत इससे काफी अलग है। भारतीय लोकतंत्र में महिलाओं की भागीदारी अगर तय करने की ईमानदारी राजनीतिक दलों ने दिखाई होती तो बात कुछ और रहती। मोदी सरकार महिला विधेयक को पारित कराने का श्रेय जरूर लेना चाह रही है, लेकिन सचमुच कबसे इसे लागू किया जा सकेगा-अभी इस पर कुछ भी दावे के साथ नहीं कहा जा सकता।

हक के लिए सख्त लड़ाई

जानकारों का अनुमान है कि अगर मौजूदा कानून को ही तत्काल लागू कर दिया जाए तब भी भारत महिलाओं को सत्ता में भागीदारी देने वाले देशों की फेहरिस्त में 54 वें स्थान पर रहेगा। ऐसी हालत में हम नेपाल से भी पीछे रहेंगे। यह सही है कि महिलाओं को पूरी दुनिया में अपना हक हासिल करने के लिए सख्त लड़ाई लड़नी पड़ रही है। कानून बनाकर आखिर महिलाओं को सत्ता में भागीदारी देने की जरूरत क्यों आन पड़ी है। जाहिर है कि विश्व समाज पूरी तरह पुरुषों पर आश्रित है और पुरुषवादी मानसिकता हमेशा महिलाओं को हाशिए पर रखने की कोशिश करती है।

इससे उलट अगर दुनिया के उन देशों को देखा जाए, जहां कानून नहीं होने के बावजूद महिलाओं को खास दर्जा हासिल है तो उनमें मेक्सिको का नाम आता है। मेक्सिको की सत्ता में महिलाओं की भागीदारी 47.6 फीसदी तक है और वह भी बगैर किसी कानून के। कोस्टारिका जैसे देशों में महिला आबादी को लेकर एक अभियान जरूर चलाया गया लेकिन नतीजे अभी साफ नहीं हैं।

कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि जिस वर्ग स्वाभाविक रूप से ही सत्ता में आधी हिस्सेदारी मिलनी चाहिए थी, उसके लिए कानून बनाना और बाद में उस विधेयक को पारित कराने का ढिंढोरा पीटना मानवीय दृष्टि से अशोभनीय कहा जा सकता है। किसी का स्वाभाविक हक उसे दिलाना ईमानदारी जरूर है लेकिन यह ईमानदारी भी आखिर कब काम आएगी तथा महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण भारतीय संसद या विधानसभाओं में कब से मिलने लगेगा-अभी यह मामला पूरी तरह धुंध में ही है।

आधी आबादीभारतीय लोकतंत्रमोदी सरकारसंपादकीय