अपने यहां एक पुरानी कहावत कही जाती है। अंधा बाँटे रेवड़ी, फिर-फिर खुद को देय। मतलब यही है कि स्वार्थ में अंधे लोगों को अगर किसी के साथ न्याय करने का जिम्मा दे दिया जाए तो अर्थ का अनर्थ होना स्वाभाविक है। कुछ ऐसा ही बंगाल की सियासी दुनिया में आजकल देखा जा सकता है। शासक दल तृणमूल कांग्रेस पर कई तरह के घोटालों में शामिल होने के आरोप लगते रहे हैं। यहां तक कि अदालत ने भी कई बार शासक दल के नेताओं के खिलाफ कड़ी टिप्पणी की है। हालात कितने बदतर हो सकते हैं इसका नमूना इसी बात से ज्ञात होता है कि खुद राज्य के पूर्व शिक्षा मंत्री को नौकरी बेचने के जुर्म में जेल की दीवारों में कैद कर दिया गया है।
अब नई कहानी
हो सकता है कि इसे राजनीतिक बदले का जामा पहनाया जाए लेकिन इस बात को भूलना नहीं चाहिए कि राज्य सरकार के मंत्री को गिरफ्तार करने का आदेश खुद अदालत ने ही दिया था। बहरहाल, अब नई कहानी जुड़ गई है। दिल्ली की केजरीवाल सरकार की तरह ही बंगाल की तृणमूल कांग्रेस सरकार ने भी अपने विधायकों और मंत्रियों की पगार में इजाफा कर दिया है। अब कम से कम चुने हुए प्रतिनिधियों को तनख्वाह लाख रुपये से ज्यादा मिला करेगी।
इसे कहते हैं रेवड़ी बाँटना। जो लोग किसी भी सूरत में चुनाव जीतकर विधानसभा में पहुंचते हैं, उन्हें चाहे जो भी कहा जाए लेकिन गरीब तो नहीं कहा जा सकता। फिर भी इन लोगों की गरीबी को ध्यान में रखकर ही शायद सरकार को इन पर दया आई होगी और एक झटके में सारे लोगों की तनख्वाह बढ़ा दी गई। जाहिर है कि ऐसे में सरकारी कर्मचारी सवाल तो पूछेंगे।
खजाना खाली है
पूछना गैरवाजिब भी नहीं है। राज्य सरकार के दफ्तरों में काम करने वाले लोगों का लंबे समय से दावा है कि दूसरे राज्यों की तुलना में उनकी तनख्वाह कम है, लिहाजा उन्हें भी केंद्र व अन्य राज्यों के बराबर महंगाई भत्ता दिया जाए। इसके लिए राज्य के सरकारी कर्मचारी सड़क पर उतरे हैं। लेकिन उन्हें डीए देने की मांग पर सरकार का साफ कहना है कि खजाना खाली है।
इसके अलावा राज्य के कुछ ऐसे भी युवा हैं जिन्होंने स्कूलों में नौकरी के लिए परीक्षा दी थी। परीक्षा में पास भी हो गए थे। लेकिन उनके बदले कुछ ऐसे लोगों को सरकारी नौकरी दी गई जिन्होंने परीक्षा भी नहीं दी थी या अगर दी भी होगी तो उत्तर पुस्तिका उनके सामने रखी गई या फिर ओएमआर शीट में ही बदलाव किया गया। अदालत ऐसे मामलों की सुनवाई कर रही है। फिर भी सरकार के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती। सर्दी, गर्मी और बरसात झेलकर तकरीबन 800 दिनों से चलाया जा रहा यह आंदोलन सरकार से इंसाफ की मांग कर रहा है लेकिन किसी का दिल पसीजने से रहा।
सरकार की नीयत
फंड के अभाव की बात सरकार की ओर से दुहराई जाती है लेकिन पूजा कमेटियों को अनुदान देने की बात पर कोई गुरेज नहीं है। जाहिर है कि ऐसे फैसलों से सरकार की नीयत के बारे में लोगों को संशय हो सकता है। विधायकों या मंत्रियों की पगार बढ़ती है तो इसका स्वागत तभी किया जा सकता है जब नागरिक समाज के हितों का भी ध्यान रखा जाए। मां-माटी-मानुष की सरकार से लोगों को काफी अपेक्षाएं हैं। उम्मीद जरूर की जानी चाहिए कि बंगाल के लोगों की पथराई आंखों में खुशियां भरने के लिए राज्य सरकार जरूर कोई बड़ा काम करेगी।