तीन राज्य और कांग्रेस

लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस को अपनी रणनीति में सुधार करने की जरूरत आन पड़ी है। यह सबको मालूम है कि कांग्रेस हार के कारणों की समीक्षा जरूर करेगी लेकिन इस दौरान उसे कुछ बातों पर ध्यान देना चाहिए। सबसे पहली बात यह है कि मोदी सरकार के विकल्प के तौर पर खुद को स्थापित करने की सोच रही कांग्रेस आखिर किस रणनीति का सहारा लेगी।

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे आए जिनमें से एक तेलंगाना में कांग्रेस की सरकार बनी। बाकी के तीन हिन्दी भाषी राज्यों में भाजपा सत्तारूढ़ हो गई। इन तीनों में से भी दो राज्यों में कांग्रेस की ही इससे पहले सत्ता थी। जाहिर है कि विधानसभा चुनाव से कांग्रेस को बहुत लाभ नहीं हुआ। तेलंगाना की जीत से भी बहुत खुश होने की जरूरत इसलिए नहीं है क्योंकि वहां भी भाजपा का वोट प्रतिशत अप्रत्याशित रूप से बढ़ा।

ऐसी हालत में लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस को अपनी रणनीति में सुधार करने की जरूरत आन पड़ी है। यह सबको मालूम है कि कांग्रेस हार के कारणों की समीक्षा जरूर करेगी लेकिन इस दौरान उसे कुछ बातों पर ध्यान देना चाहिए। सबसे पहली बात यह है कि मोदी सरकार के विकल्प के तौर पर खुद को स्थापित करने की सोच रही कांग्रेस आखिर किस रणनीति का सहारा लेगी।

भाजपा के हिंदुत्व की काट करने के लिए सनातन को समाप्त करने का समर्थन कम से कम हिन्दी भाषी प्रदेशों में कांग्रेस के काम नहीं आ सका। पिछले चुनावों के आलोक में राहुल गांधी का मंदिर-मंदिर जाना और खुद को जनेऊधारी ब्राह्मण बताना भी काम नहीं आया था। इसलिए भाजपा की रणनीति को काटने के लिए कांग्रेस की कौन सी रणनीति बनेगी-यह विचारणीय होगा।

दूसरा मसला है बड़बोलेपन का। इतनी बुरी हालत होने के बावजूद पार्टी कार्यकर्ताओं के समक्ष कांग्रेसी नेता खुद को किसी दूसरे ग्रह का प्राणी समझकर उनसे बदसलूकी करते रहे हैं। हाल के मध्यप्रदेश के चुनाव में ही देखा गया कि कमलनाथ का व्यवहार अपने ही दल के लोगों के साथ कैसा था। राजस्थान में भी अशोक गहलोत लगातार सचिन पायलट को नीचा दिखाने और गुटबंदी करने में ही उलझे रहे। राहुल-प्रियंका का चुनावी दौरा होता रहा लेकिन कांग्रेस के तथाकथित बड़े नेता जनता से नहीं जुड़ सके। इससे गुटबाजी बढ़ती चली गई।

जब खुद की पार्टी में ही गुटबाजी होगी तो इंडिया गठबंधन के सहयोगियों को साथ चलने की बात कांग्रेस कैसे समझाएगी-यह भी एक बड़ा सवाल है। खासकर विधानसभा चुनाव के दौरान मल्लिकार्जुन खड़गे की पार्टी के नेताओं का जो बर्ताव दूसरे सहयोगी दलों के प्रति देखा गया उससे जाहिर है कि इंडिया गठबंधन में शामिल होने वाले दल भी नए तरीके से सीटों की हिस्सेदारी की बात करेंगे। इसमें सबसे अहम बात यह होगी कि ममता बनर्जी समेत कई नेता हैं जो पहले से ही कांग्रेस के नेतृत्व में चुनाव लड़ने से आनाकानी कर रहे हैं तथा राहुल गांधी की राजनीतिक सोच से खुद को अलग-थलग करते रहे हैं।

समझा जा सकता है कि कांग्रेस की कर्नाटक चुनाव में जीत के बाद मानसिकता बदल गई थी। शायद पार्टी के थिंक टैंक को लगा था कि पहले पांच राज्यों के चुनावों में जीत हासिल की जाए फिर सहयोगी दलों से गठबंधन की तस्वीर साफ करने को कहा जाएगा। लेकिन अब बदले हुए हालात में कांग्रेस को खूब समझदारी से काम करना होगा। केवल दक्षिण के राज्यों से मिलने वाली सीटों के बूते केंद्र में सरकार बनाना असंभव है। लिहाजा उत्तर भारत के दूसरे सहयोगियों के लिए सीटें छोड़नी होंगी। ज्यादा से ज्यादा सीटें सहयोगी दलों को देनी होंगी। ऐसी हालत में गठबंधन में संभावित गतिरोध के आसार होंगे। लोकसभा चुनाव की रणनीति कैसी बनेगी तथा कांग्रेस किस तरह जनता में खुद को विकल्प के तौर पर पेश करेगी- यह देखने लायक होगा।

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