संयुक्त राष्ट्र और भारत

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से ही दुनिया में जिस तरह का ध्रुवीकरण होता गया उसमें किसी को भी एक न एक गुट के साथ नहीं रहने में काफी जोखिम था। लेकिन भारत ने दो गुटों में बँट चुकी दुनिया में खुद को तटस्थ रखने का जो फैसला किया था, उसके नतीजे आज भी साफ दिख रहे हैं।

एक कोने में रूस (तब का सोवियत संघ) और दूसरे कोने में अमेरिका अपनी-अपनी ताकत आजमा रहे थे लेकिन भारत ने खुद को गुटनिरपेक्ष बनाए रखा। उस नीति का ताजा उदाहरण अभी संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार संबंधी महासभा की बैठक में देखा गया है जिसमें सुरक्षा से जुड़े प्रस्ताव पर भारत ने वोट देने से इंकार कर दिया।

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इस प्रस्ताव के तहत जो मसौदा बनाया गया था उसमें साफ कहा गया कि फिलहाल रूस और यूक्रेन की जो जंग हो रही है, उसे तुरंत रूस बंद करे और बिना शर्त अपने सैनिकों को वापस बुलाए। इस तरह के प्रस्तावित मसौदे को भारत ने एकतऱफा करार दिया है।

भारत का मानना है कि इस तरह के प्रस्तावों से समस्या का स्थाई समाधान नहीं निकाला जा सकता। यही वजह है कि भारत समेत 32 देशों ने इस प्रस्ताव पर वोट नहीं किया है।

अगर भारत की ओर से इसकी गहराई में सोचें तो बात समझ में आती है। यूक्रेन और रूस की जंग को एक साल हो गया लेकिन कोई पक्ष किसी के आगे हथियार डालने को तैयार नहीं है।

रूस पर अगर दबाव बनाकर उसे जंग रोकने की बात समझाई जाय या उसके सैनिकों को वापस बुलाने को राजी कराया जाए, तो इससे जेलेंस्की समेत ऐसे तमाम लोगों को प्रोत्साहन मिलेगा।

जेलेंस्की के अबतक लड़ाई में डटे रहने की वजह यूक्रेन की सेना नहीं, बल्कि अमेरिका और उसके सहयोगी हैं। अमेरिकी लॉबी की ओर से मिल रहे हथियारों ने जेलेंस्की को अबतक लड़ाई में कायम रखा है।

लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि आखिर दुनिया की चौधराहट का ठेका लेने वाला अमेरिका यूक्रेन को लगातार हथियारों की सप्लाई क्यों कर रहा है। जाहिर है कि इससे उसका व्यावसायिक लाभ हो रहा है।

काबिलेगौर है कि जेलेंस्की नेटो के सदस्य नहीं हैंष उनकी मंशा जरूर है शामिल होने की। और रूस यही नहीं चाहता।

रूस को पता है कि यूक्रेन के बहाने अमेरिका रूस की सीमा के बिल्कुल करीब अपना सैन्य ठिकाना बनाने की कोशिश करेगा जिससे रूसी सुरक्षा को खतरा हो सकता है। पुतिन यही चाहते थे कि यूक्रेन तटस्थ रहे लेकिन जेलेंस्की को नेटो में शामिल होने की पड़ी है।

ऐसे में अगर संयुक्त राष्ट्र के मौजूदा प्रस्ताव को ठीक से समझा जाए तो यही लगता है कि इसका मसौदा यूक्रेन या अमेरिका के इशारे पर ही बनाया गया होगा।

भारत ने इसीलिए इस प्रस्ताव पर वोट करने से इंकार कर दिया है। भारत की ओर से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से यह भी शिकायत की गई है कि सुरक्षा परिषद की भूमिका लगातार दुनिया में बढ़ते संघर्ष में कमजोर होती जा रही है।

इसके बावजूद अगर संयुक्त राष्ट्र जैसे किसी खास मंच का सहारा लेकर दुनिया पर रौब गालिब करने के लिए ही कुछ तथाकथित पावरफुल देश परदे के पीछे से छड़ी घुमाते हैं तो इसका समर्थन नहीं किया जाना चाहिए। भारत ने मसौदे में छिपी साजिश को समझकर ही खुद को अलग रखने का फैसला लिया है जो सर्वथा सराहनीय कदम कहा जाएगा।

जिन्हें खून-खराबे से परेशानी है या जो इंसानी हक को कायम ऱखने की सोचते हैं, उन्हें दोनों पक्षों से खुद कर बात करनी चाहिए। एकतरफा फैसला लाद देना गलत है।