क्यों मचा कॉलेजियम विवाद

केंद्र सरकार के साथ लंबे समय से सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम का विवाद रहा है। आम लोगों को यही बात समझ में नहीं आती कि जो सरकारें संविधान की रक्षा का शपथ लेती हैं, वही सरकार में आने के बाद क्यों अपने मन से कानून और अदालत की समीक्षा करने लगती हैं।

शायद उनकी राजनीतिक मजबूरियां ही सरकारों को इस बात के लिए मजबूर करती हैं कि वे प्रचलन से अलग कोई राह बना सकें। लेकिन इसे भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत ही कहा जा सकता है कि केंद्र या राज्यों की ओर से मिल रहे सारे दबावों को झेलकर भी अदालत अपना काम कर रही होती है तथा किसी की दखलंदाजी की गुंजाइश नहीं होने देती। इस मसले पर एक बार फिर से विवाद देखा जा रहा है।

केंद्रीय मंत्री किरण रिजिजू लगातार न्याय प्रक्रिया पर सवाल खड़े कर रहे हैं। यहां तक कि उन्होंने यह भी कह दिया है कि किसी जज पर कोई आम नागरिक मुकदमा नहीं करता इसीलिए जजों की मनोवृत्ति ऐसी हो गई है।

ज्ञात रहे कि इसके पहले भी केंद्र की यूपीए सरकार के जमाने में एक बात कही जाती थी- वह थी ज्यूडिशियल एक्टीविज्म या न्याय प्रणाली की अति सक्रियता की। दरअसल अदालत जब भी सरकार के अधूरे या गलत काम की ओर ध्यानाकर्षण करती है, तभी सरकार में शामिल लोगों को मिरची लगने लगती है।

इस बार सरकारी फरमान को ठुकरा कर कॉलेजियम की ओर से तीन वरिष्ठ वकीलों को जज बनाने की सिफारिश की गई है। सरकार को इस बात से आपत्ति है कि एक ट्रांसजेंडर को जज कैसे बना दिया जाए। ट्रांसजेंडर वकील को जज नहीं बनाने का दबाव सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम पर बनाया जा रहा है लेकिन अदालत ने फिर से उन्हीं तीनों नामों को पेश किया है जिनका उल्लेख पहले ही कर चुकी है।

यह सारा झमेला इसी बात को लेकर खड़ा हुआ है और केंद्र सरकार की ओर से रिजिजू इसीलिए तरह-तरह से अदालत पर तंज कस रहे हैं।

प्रसंगवश कहा जा सकता है कि भारतीय संविधान में किसी को भी लिंग, भाषा, रंग या नस्ल तथा धर्म के आधार पर नागरिकों में भेद करने की इजाजत नहीं है। कॉलेजियम का मानना है कि ट्रांसजेंडर को भी वही सारे अधिकार हासिल हैं जो किसी आम शहरी को हैं। ऐसे में ट्रांसजेंडर वकील आखिर जज क्यों नहीं बन सकते।

जाहिर है कि कानून की समझ के आधार पर ही बड़े वकीलों को जज बनाने की सिफारिश की जाती है। ऐसे में अगर उन तीन लोगों में वैसी काबिलियत है तो भला उन्हें जज क्यों नहीं बनाया जा सकता। हो सकता है कि कुछ लोगों को इस बात से परेशानी हो कि आखिर एक तीसरे लिंग का व्यक्ति उनके मुकदमे की सुनवाई कैसे कर सकता है।

लेकिन इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का नजरिया बिल्कुल साफ है। किरण रिजिजू जैसे लोगों को यह मान लेना चाहिए कि आज भी भारत की आम आबादी नेताओं पर कम, लेकिन अदालतों पर पूरा भरोसा करती है। यही है हमारे लोकतंत्र की विशेषता।

ऐसे में किसी को लिंग के आधार पर उसकी योग्यता से बेदखल करना सरासर अन्याय होगा। चुनी हुई सरकार के फैसलों को मानना पड़ता है क्योंकि उसे जनादेश हासिल है। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि संविधान की मौलिकता कायम न रहे। दोनों प्रतिष्ठान सरकार और अदालत, संविधान की ही देन हैं। दोनों में सामंजस्य ही स्वस्थ लोकतंत्र का परिचायक है।

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SUPRIME COURTWhy the collegium controversy