ओबीसी आधारित आरक्षण पर रोक

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फिर एक नया विवाद सामने आया है। लखनऊ हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार के उस प्रस्ताव को ही खारिज कर दिया है जिसमें ओबीसी या अन्य पिछड़ी जातियों पर आधारित संख्या के मुताबिक सीटों को स्थानीय चुनाव में आरक्षित करने का संकेत दिया था। अदालत का मानना है कि ओबीसी के आधार पर सीटों को आरक्षित करने का जो मसौदा पेश किया गया है, वह मान्य नहीं है तथा बगैर किसी आरक्षण के ही ग्रामीण स्थानीय निकायों का चुनाव कराया जाए।

 

आरोप है कि सुप्रीम कोर्ट की ओर से पहले बताए गए ट्रिपल टेस्ट फारमूले को भी इसके तहत आजमाया नहीं गया है। कानूनी प्रक्रिया से जुड़े लोगों का मानना है कि सरकारों की ओर से जातियों के नाम पर सीटों को आरक्षित करने का जो तरीका है, वह राजनीति से परे होना चाहिए।

प्रसंगवश सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का जिक्र जरूरी हो जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने जातियों के आधार पर सीटों के आरक्षण के लिए एक तीन सूत्री प्रस्ताव दिया था। इसमें कहा गया था कि सीटों को अनुसूचित जाति, जनजाति या अन्य पिछड़े वर्ग के नाम पर आरक्षित करने के पहले एक आयोग का गठन किया जाना चाहिए जो संबंधित क्षेत्र की आबादी के अनुसार एक खाका तैयार करे।

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इसके बाद का दूसरा सुझाव यह था कि संबंधित सरकारों को आरक्षित होने वाली सीटों का अन्य सीटों के मुकाबले एक अनुपात तैयार करना चाहिए और तीसरी बात यह थी कि किसी भी हालत में आरक्षित सीटों की कुल संख्या संबंधित इलाके की कुल सीटों के 50 फीसदी से अधिक नहीं होनी चाहिए। इन तीनों फारमूलों के आधार पर आरक्षित होने वाली सीटों का मसौदा तैयार करने के बाद ही अदालतें ऐसे किसी आरक्षण की मंजूरी दे सकती हैं।

आमतौर पर राजनीतिक कारणों से इसके पहले भी देखा गया है कि कुछ सरकारें अपनी सुविधा के मुताबिक सीटों के आरक्षण की घोषणा कर देती हैं। अदालत ने इसी घटना पर अपना रुख साफ करते हुए कह दिया है कि फिलहाल उत्तर प्रदेश के ग्रामीण निकायों के चुनाव में ओबीसी आधारित सीटों का आरक्षण नहीं किया जाए।

इससे हो सकता है कि कुछ नेताओं को तकलीफ हो क्योंकि बिहार-उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में जातियों के आधार पर ही अबतक सियासी समीकरण बनते रहे हैं। स्थानीय चुनाव से लेकर संसद तक के चुनाव में इन राज्यों में जातियों को ही आधार बनाया जाता रहा है।

गौरतलब है कि बार-बार राजनेताओं से कहा जाता रहा है कि जातियों की सियासत से बाहर आएं। संविधान ने सभी नागरिकों को समानता का अधिकार दे रखा है, लिहाजा जाति या धर्म के आधार पर राजनीति नहीं की जानी चाहिए। लेकिन भारतीय समाज तथा खासकर हिन्दी भाषी प्रदेशों की राजनीति के साथ आजादी के बाद से ही जातियों का कोढ़ लगा रहा है।

जातियों के इस कोढ़ ने समाज को कहीं न कहीं विभाजित ही करने का काम किया है। फिर भी स्थानीय जरूरतों के हिसाब से लोगों के जीवन स्तर को आगे बढ़ाने के लिए कुछ जगहों पर शहर या देहात- हर जगह सीटों को चुनाव में आरक्षित करने का प्रावधान रखा गया है। उस प्रावधान का राजनीतिक इस्तेमाल न हो, यह राजनेताओं को तय करना है। अदालत ने सिर्फ आईना दिखाया है।