सुप्रीम दायित्व बोध

भारत की शीर्ष अदालत ने एक पुरानी बात को ही नए सिर से उछाल दिया है। दरअसल शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती द्वारा सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका डाली गई थी, जिसमें जोशीमठ के बारे में तुरंत हस्तक्षेप की मांग थी।

सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर बहुत साफ कहा है कि हम जल्दबाजी में किसी भी मामले की सुनवाई नहीं कर सकते। और आपातकालीन हालत में किसी स्थान या किसी जनहित से जुड़े मामले का समाधान करने के लिए लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकारों को ही दाय़ित्व का पालन करना चाहिए।

मतलब यह कि अदालत ने साफ तौर पर बता दिया है कि हर समस्या के समाधान के लिए आप सीधे अदालतों का दरवाजा न खटखटाएं। जो लोग देश सेवा के लिए चुनकर आते हैं, उनसे भी संपर्क किया जाना चाहिये।

अर्थात लोकतंत्र की मजबूती के लिए बेहद जरूरी है कि संविधान के सभी अंगों को काम में लगाया जाए।

जो सरकारें जनता के वोट से चुनकर आती हैं तथा विकास के बड़े-ब़ड़े वायदे करती हैं, आखिर जनहित के मामलों में खुद काम क्यों नहीं करतीं। इसके पहले भी कई बार अदालतों की ओर से कहा जाता रहा है कि अगर चुनी हुई सरकारें अपना काम ईमानदारी से करना सीख लें तो बहुतेरे कानूनी विवाद समाप्त हो सकते हैं।

लेकिन अफसोस की बात है कि चुनाव जीतने के बाद सरकारें जनता के प्रति अपने दायित्वों को भूलकर अगला चुनाव जीतने की कोशिश में लग जाती हैं। जनता बेचारी ठगी की ठगी ही रह जाती है।

सुप्रीम कोर्ट ने इशारों में इस याचिका के बारे में कह दिया है कि अदालतों के पास ऐसे मामलों की सुनवाई के लिए वक्त जरूर है मगर संबंधित सरकारों को भी अपना दायित्व निभाना चाहिए। लगे हाथों याचिकाकर्ता को भी अदालत ने परोक्ष रूप से समझा दिया है कि जहां की समस्या है, पहले वहां की चुनी हुई सरकारों से इस मसले पर बात की जानी चाहिए।

दरअसल संविधान के तीनों अंगों के काम की समीक्षा की जाए तो यही लगता है कि जनता के प्रतिनिधियों को पहले कानून बनाने का काम दिया गया है। उनके द्वारा बनाए कानूनों या प्रावधानों को अमल में लाने के लिए ही कार्यपालिका या सरकारी कर्मचारियों को नियुक्त किया जाता है।

और उन कानूनों या प्रवाधानों को सही तरीके से जनहित में लागू किया जाता है या नहीं, इसकी निगरानी के लिए अदालतों को या न्यायपालिका को जिम्मा दिया गया है। ऐसे में कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका के काम का बँटवारा सलीके से किया गया है।

लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि विधायिका के साथ कार्यपालिका की मिलीभगत ने सारा कुछ बिगाड़ कर रख दिया है। यही वजह है कि आम लोग किसी भी समस्या के त्वरित समाधान के लिए अदालतों की ओर कूच करने का फैसला ले लेते हैं। दरअसल लोगों को विधायिका और कार्यपालिका के काम पर भरोसा ही नहीं हो पाता है।

जोशीमठ के मामले में भी अगर विधायिका ने पहले की रिपोर्ट्स पर ध्यान दिया होता तथा कार्यपालिका को इस मामले में काम करने का निर्देश दिया होता तो शायद यह तस्वीर देखने को नहीं मिलती और शंकराचार्य को भी सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटाना पड़ता।

अदालत ने सही दिशा की ओर संकेत दिया है मगर मजबूर जनता के पास अदालतों के समक्ष जाने के अलावा कोई दूसरा भरोसेमंद विकल्प भी तो नहीं है।

इसे भी पढ़ेंः  सुशासन का कुशासन

Central government in action regarding the crisis in JoshimathJoshimathsupreme sense of responsibilitysuprim court