फिर एक मजदूर दिवस

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वामपंथी आंदोलन ने कम से कम एक दिन की छुट्टी दिलाई थी इस मजदूर दिवस के नाम पर। लेकिन हैरत की बात है कि मजदूर या श्रम को सही तरीके से परिभाषित नहीं किया जा सका। संगठित-असंगठित क्षेत्र के नाम पर पहले भी ठगे गये थे मजदूर और आज की गिग इकोनॉमी ने तो इनका नाम ही बदल दिया है। नाम बदलने की नई पूंजीवादी नीति चल पड़ी है जिसमें कई क्षेत्रों में मजदूरों को अब मजदूर नहीं कहा जाता। नई व्यवस्था ने इनकी पहचान तक छीन ली है। इन्हें कहीं हेल्पिंग हैंड कहा जाता है, कहीं इनपुट-आउटपुट तो कहीं पार्टनर। नाम बदलने की यह कला भी खूब फल-फूल रही है क्योंकि इससे किसी कर्मचारी को मजदूर का दर्जा देने के पचड़े में नहीं पड़ना होता है।

वह भी एक दौर था जब इन्कलाब जिंदाबाद के नारे पर मजदूर टूट पड़ते थे। खासकर बंगाल की धरती पर वामपंथी सरकार के दौर में मजदूरों के नाम पर जिस तरह के आंदोलन देखे जाते थे, आज उसके निशान नहीं रहे। निशान के तौर पर बंद पड़ी मिलें हैं या उन कारखानों के दर-ओ-दीवार हैं, जहां वाम नेताओं के इशारे पर मजदूर मरने-मारने को उतारू हो जाया करते थे। उन्हीं मजदूरों में से ज्यादातर लोग बाद में आंदोलन की भेंट चढ़ गए। अनपढ़ (अथवा अर्द्धपढ़) तथा सीधे-सादे मजदूरों को कुछ वाम नेताओं ने मार्क्सवाद-पूंजीवाद समझाया और पूंजीपतियों से माल लेकर अपना भला किया। बेचारे श्रम-क्रांति के वे सिपाही (मजदूर) बाद में कुछ मर-खप गए, कुछ अनाम शहीद हो गए और कुछ चुनिंदा मजदूर जो कभी प्रोलिटेरिएट होने का दावा करते थे, किसी कंपनी के मालिक की चमचागिरी या किसी पूंजीपति की दलाली करके बाद में बुर्जुआ हो गए। राह में कोई खो गया, तो वह है मजदूर।

अपने श्रम की उचित मांग करने वाला मजदूर आज भी उसी लड़ाई में लगा है। उसे पता ही नहीं कि पूंजीवाद से इतर किसी दूसरे समाजवाद की कल्पना नहीं हो सकती। बंगाल की धरती इस बात की गवाही देती है कि यहां एक जमाने में रोजगार के अवसर काफी थे। सबसे ज्यादा रोजगार देने वाला क्षेत्र था जूट उद्योग। इन जूट मिलों में बिहार (आज का झारखंड भी)-उत्तर प्रदेश-ओडिशा और आंध्र प्रदेश से काम की तलाश में लोग आते थे, रोजगार हासिल करते थे। जूट के लाखों किसान भी हुआ करते थे जिनकी गृहस्थी इन मिलों पर ही निर्भर होती थी। ये किसान भी मजदूरों में ही शामिल थे। लेकिन आज सबकुछ खामोश हो गया है। जो लोग रोजगार की तलाश में देश के दूसरे राज्यों से भागकर बंगाल आया करते थे, उनका भी बंगाल से पलायन हो रहा है। मजदूरों की संख्या के साथ-साथ उनकी पहचान भी मिटाई जा रही है। ई-कामर्स और ई- डिलिवरी के इस दौर में जो लोग घर-घर भोजन पहुंचाने का काम करते हैं उन्हें पार्टनर कहा जाता है, मजदूर नहीं। एमएसएमई के क्षेत्र में भी मजदूरों की हालत लगातार बदतर होती जा रही है। मजदूर दिवस की तब पताका फहराने वाले लोगों का आज कोई अता-पता नहीं है। बस, नाम मात्र को कुछ लोग बचे हैं जिन्होंने मजदूर एकता और श्रम क्रांति के सपने दिखाए थे। उन सपने दिखाने वालों की हालत सपनों जैसी ही हो गई है। आज बंगाल का थका-हारा मजदूर जब पथराई आंखों से तब के किसी सपनों के सौदागर को रोक कर पूछता है कि कहो कामरेड, कहां गई वह हेकड़ी, तो जवाब में मिलती है खामोशी। मजदूर विदा हो रहे हैं, उनकी पहचान छिपाई जा रही है, रोजगार कम हो रहे हैं, फैक्ट्रियों ने धुआं उगलना बंद कर दिया है, कोलियरी में काम करने वालों की कमर झुक गई है। प्रोलिटेरिएट और बुर्जुआ के संघर्ष में अगर कुछ बचा है तो वह है मजदूर दिवस।