किसी भी आग को अगर नजरअंदाज करने की आदत अपनाई जाए तो वह अचानक एक ऐसा विकराल रूप लेती है, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। भारत के पूर्वोत्तर राज्यों की ओर से बार-बार इस तरह की आवाजें उठती रही हैं कि केंद्र की ओर से इन राज्यों की समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया जाता। यही वजह रही कि ज्यादातर पूर्वोत्तर के राज्यों में केंद्र के खिलाफ एक माहौल बनता चला गया है।
शायद इसीलिए कुछ राज्यों में चीन की दखलंदाजी बढ़ती गई है। इस मामले में भले ही दिल्ली की ओर सफाई दी जाए लेकिन यह सही है कि पूर्वोत्तर की ज्यादातर समस्याओं को या तो नजरअंदाज किया जाता रहा है अथवा उन्हें दबाने की कोशिश होती रही है। लोकतंत्र में सत्ता के विकेंद्रीकरण की बात अक्सर होती जरूर है मगर कथनी और करनी का अंतर साफ दिखता है।
आज मणिपुर में जो हिंसा फैली है, वह केवल मणिपुर तक ही सीमित नहीं है। उस हिंसा की आग से असम,नगालैंड,त्रिपुरा,पश्चिम बंगाल तथा दिल्ली भी तपने लगी है। इस हिंसा की वजह को समझने तथा लोगों के जीवन स्तर को विकसित करने का एक ठोस तंत्र विकसित किए बगैर इसका स्थाई समाधान नहीं है। जिन मैती आदिवासियों को अधिकार देने की बात अदालत ने कही है, उनका कसूर यही है कि वे समाज में खुद को उपेक्षित महसूस करते रहे हैं।
खुद को अलग-थलग होते देख उन्होंने जब प्रशासन की उदासीनता झेल ली तो अदालत का रुख किया। मौजूद साक्ष्यों के आधार पर अदालत ने उन्हें भी अनुसूचित करने का फैसला सुना दिया। इससे मणिपुर के कूकी समुदाय में असंतोष पैदा हुआ और मामला हिंसा तक जा पहुंचा है। इसे इतना समझ लेने मात्रा से समस्या का समाधान नहीं हो सकता। इसके पीछे किसी तीसरी वजह का हाथ भी हो सकता है। अगर किसी तीसरी ताकत का शह नहीं हो तो अचानक इतनी भयानक हिंसा नहीं हो सकती। हिंसा का आलम यह है कि सरकारी पदों पर बैठे लोगों को भी उनके घरों से निकाल कर उनकी हत्या कर दी जाती है।
थानों को लूटकर हथियार ले जाने वाले तथा सरकारी मुलाजिमों के अलावा सीआरपीएफ के जवान की हत्या करने वाले लोग केवल अधिकारों के लिए ही लड़ रहे हैं-ऐसा समझना सही नहीं है। जरूर कोई भीतरी आग जल रही है जिसे अंदर ही अंदर कोई हवा दे रहा है। यही वजह है कि बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी पश्चिम बंगाल में मणिपुरी हिंसा से प्रभावित लोगों को आश्रय देने के लिए हेल्पलाइन खोल दिया है। दिल्ली में मैती समुदाय के छात्रों के साथ कूकी छात्रों की मारपीट भी यही बताती है कि आग भीतर ही भीतर काफी सुलग चुकी है। हो सकता है कि पूर्वोत्तर के उग्रपंथी गुटों की भी इन्हें मदद मिल रही हो। केंद्र सरकार ने हाल ही में जिस तरह नगालैंड की समस्या को सुलझाने के लिए कथित तौर पर गुप्त समझौता किया है, उस समझौते के आलोक में ही मणिपुर की समस्या को सुलझाना जरूरी हो गया है।
देश के किसी भी कोने की जनता में पनपते असंतोष को दबाने के बजाय उसका स्थाई समाधान निकालना ही श्रेयस्कर है। दिल्ली को याद रखना होगा कि पड़ोसी चीन हमारी आंतरिक गतिविधियों पर नजरदारी के लिए हमेशा चौकस है। हमारे घर में जल रही विद्रोह की आग या हिंसा हमें और अधिक जख्मी करे तथा कोई विदेशी उस आग को हवा दे-उससे पहले ही केंद्र सरकार को तत्पर होना होगा। गोली की समस्या का समाधान गोली से नहीं, गल(बात) से होनी चाहिए।