मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने त्रिपुरा चुनाव से पहले अपनी ताकत की समीक्षा कर ली है। उसे इस बात का पता चल गया है कि तमाम कोशिशों के बावजूद वह त्रिपुरा में अकेली चुनाव लड़कर जीत हासिल नहीं कर सकती। यही वजह है कि माकपा नेता सीताराम येचुरी को एक बार फिर कांग्रेस की याद आई है।
सीताराम का कहना है कि त्रिपुरा विधानसभा के चुनाव में सभी 60 सीटों पर माकपा अकेली नहीं लड़ेगी। उसे कांग्रेस समेत तमाम ऐसी ताकतों का साथ चाहिए जो भाजपा की वहां बढ़ती ताकत को रोक सकें। ऐसे में स्वाभाविक रूप से माकपा को त्रिपुरा में कांग्रेस का हाथ थामना ही सहज लगता है।
समझा जाता है कि 2 फऱवरी से पहले कांग्रेस आलाकमान से बातचीत के बाद माकपा किसी नतीजे पर पहुंच जाएगी। संभव है कि माकपा 37 और कांग्रेस एक गठजोड़ के तहत 13 सीटों पर चुनाव लड़े।
बहरहाल राजनीतिक पर्यवेक्षकों की राय है कि माकपा की ताकत फिलहाल त्रिपुरा जितनी क्षीण हो चुकी है, उससे यही लगता है कि वह चाहकर भी भाजपा के विजय रथ को रोक नहीं पाएगी। सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि आम चुनाव से पहले जिस तरह की तैयारी राजनीतिक दलों की ओर से की जा रही है, उससे साफ लगता है कि फिलहाल मोदी सरकार के विरुद्ध कोई प्रभावी मोर्चा नहीं बन पा रहा है।
बेहतर तो होता कि कांग्रेस के अलावा माकपा ने तृणमूल कांग्रेस का भी दरवाजा अपनी ओर से त्रिपुरा में खटखटाया होता। जाहिरी तौर पर न सही, परोक्ष रूप से ही अगर तीनों दलों की आपसी सूझबूझ से किसी गठबंधन को अंजाम दिया गया होता तो शायद बात बन जाती।
अब यह बात दीगर है कि माकपा या तृणमूल कांग्रेस में से किसी में भी वह साहस नहीं कि खुलेआम त्रिपुरा में एक मंच पर आ सकें। ये दोनों ही पार्टियां पश्चिम बंगाल में एक-दूसरे के खिलाफ हैं तथा दोनों को अपनी-अपनी सियासी मजबूरियों के कारण बंगाल में एक दूसरे को नीचा दिखाना है।
ज्ञात रहे कि तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी ने काफी लंबी लड़ाई लड़कर 2011 में 34 सालों की वाममोर्चा सरकार को उखाड़ फेंका था। ऐसे में तृणमूल और माकपा दोनों ही दल बंगाल में एक-दूसरे को राजनीतिक शत्रु मानते हैं। जाहिर है कि ऐसे आलम में दोनों का त्रिपुरा में साथ आना असंभव है।
बहरहाल, रही बात कांग्रेस के साथ माकपा या सीपीएम के गठबंधन की। यह गठबंधन कई बार बना और टूटा। हाल के बंगाल विधानसभा के चुनाव में भी दोनों दलों ने हाथ मिलाया और चुनाव भी लड़े। लेकिन जनता को यह गठबंधन रास नहीं आया जिसके कारण बंगाल से माकपा का सूपड़ा ही साफ हो गया। बल्कि कांग्रेस और माकपा के गठबंधन में अब्बास सिद्दीकी की पार्टी को जीत का स्वाद चखने को मिल गया।
ऐसे में कहा जा सकता है कि बंगाल के अनुभवों के मद्देनजर यह लगता नहीं कि त्रिपुरा में माकपा और कांग्रेस का गठबंधन कोई गुल खिला पाएगा। सीताराम येचुरी की पार्टी का कांग्रेस के बारे में कभी हां, कभी ना की नीति ही इस मामले में काफी पेंचीदा रही है। लोगों को भी इस गठबंधन पर शायद अब उतना भरोसा नहीं रह गया है।
माकपा को अपनी ताकत बढ़ाने और जीत हासिल करने के लिए कांग्रेस के अलावा स्थानीय दलों से भी हाथ मिलाने की जरूरत पड़ेगी। ऐसे में त्रिपुरा के आदिवासियों की भूमिका काफी अहम होने वाली है। भाजपा के खिलाफ एंटी इन्कंबेंसी को माकपा-कांग्रेस कितना भुनाती हैं-देखने लायक होगा।
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