समझौते का दबाव

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बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सुशासन बाबू कहा जाता रहा है तथा उनसे बिहार के लोगों को इस बात की उम्मीद रही है कि कम से कम उनके शासन में अत्याचार से लोगों को राहत मिलेगी। नीतीश की छवि भी साफ-सुथरी रही है जिससे लोगों को काफी उम्मीदें रही हैं। अपनी छवि को कायम रखने के लिए ही नीतीश कुमार ने 2016 में अचानक राज्य की महिला मतदाताओं के दुख को समझते हुए शराबबंदी की घोषणा कर दी। बाकायदा कानून में भी संशोधन किया गया तथा आनन-फानन में शराब बंदी का कानून लगा दिया गया। यह बात और है कि तब खुद उनके निजी सलाहकारों ने भी शराबबंदी का विरोध किया था। लेकिन आज हालात बदल चुके हैं।

जो नीतीश कुमार कल तक शराबबंदी की बातें किया करते थे, उन्हें यह बात समझ में आ गई है कि उनकी बात से बिहार के आम लोगों की सहमति नहीं है। और अगर विधानसभा चुनाव से पहले शराब बंदी पर लगाम नहीं लगाई तो शायद इस बार उनकी पार्टी का ही सफाया हो सकता है। पार्टी और लोगों के दबाव में ही नीतीश कुमार ने अब पैर पीछे खींचने शुरू किए हैं। इसकी वजह भी कम दिलचस्प नहीं है। दरअसल बिहार में जिन गाड़ियों से शराब की बोतलें बरामद होती थीं, उन्हें खींचकर थाने ले जाया जाता था। कानून के अनुसार प्रावधान बने थे कि यदि किसी गाड़ी मालिक को अपनी सीज हुई गाड़ी थाने से निकालनी हो तो उसे बीमे की कुल राशि का 50 फीसदी सरकार को जमा कराना पड़ेगा। ऐसे में लगभग 800 थानों में कुल 50000 गाड़ियां खड़ी हैं जिनसे थानों के पास भी अब जगह का अभाव हो गया है। थाने की भीड़ हटाने के लिए ही बिहार सरकार ने अब बीमा राशि के 50 फीसदी जुर्माने की रकम के बदले 10 फीसदी रकम जमा कराने का फैसला लिया है।

कानून में हो रहे आहिस्ता-आहिस्ता बदलाव पर नजर डालें तो पता चलता है कि किसी अदृश्य दबाव के कारण नीतीश कुमार ने अपनी ही नीतिय़ों में बदलाव शुरू किया है। बदलाव का आलम यह है कि शऱाबबंदी कानून लागू होने के बावजूद करीब 199 लोगों की जहरीली शराब पीने से इन सालों में मौत हो चुकी है। जाहिर है कि शराब बंदी के बावजूद अगर 199 लोग जहरीली शराब के शिकार हो गये तो नीतीश बाबू की सरकार क्या कर रही है। आंकड़ों के आधार पर बताया जा रहा है कि 2016 के बाद से अबतक बिहार में तकरीबन शराब कानून तोड़ने के 3 लाख 75 हजार मामले दर्ज हो चुके हैं जिनमें लगभग 4.25 लाख लोगों को गिरफ्तार भी किया गया है। लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ। देखा यही जा रहा है कि महिलाओं का दर्द दूर करने के लिए बनाए गए शराबबंदी कानून ने पूरे बिहार का दर्द बढ़ा दिया है। और शायद यह बात नीतीश कुमार खूब अच्छी तरह समझने भी लगे हैं। इसीलिए उनके सिपहसालारों ने शायद उन्हें धीरे चलने की सलाह दी है और बिहार सरकार इस मामले में अब धीरे चलने की नीति अपना रही है। इस कानून का असर यह भी देखा गया जब खुद बिहार में पुलिस महकमे के लोगों ने ही थानों के मालखाने में जब्त की गई शराब को गटक लिया और चूहों का नाम ले लिया।  शऱाबबंदी की आड़ में बिहार में शराब की तस्करी से भी बहुतेरे लोगों ने इन सालों में जम कर कमाया है-इसकी भी जानकारी मिलने लगी है। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि कर्पुरी ठाकुर ने जिस तरह शराबबंदी कानून को लागू करने के बाद कदम पीछे बढ़ाए थे, लगभग नीतीश कुम्रार भी अब उसी राह पर चलने को बाध्य हो रहे हैं।