महंगाई और महंगाई भत्ता

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रकार जितने भी पैंतरे बदलती है, उसके साथ ही शुरू होती है महंगाई की मार। जब-जब देश में कोई नई सरकार आई है, कहीं न कहीं महंगाई जरूर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बढ़ती गई है।

अजीब विडंबना तो यह है कि तमाम कोशिशों और दावों के बावजूद लगातार महंगाई का कद बढ़ता ही गया है। ऐसे में आम लोग भले ही इसकी चक्की में पिसें मगर सरकारी लोगों को महंगाई बढ़ने के साथ ही एक खास भत्ता भी दिया जाता रहा है।

यह बात दीगर है कि कुछ कारपोरेट घरानों ने भी महंगाई भत्ते का प्रावधान अपने कर्मचारियों के लिए रखा है। लेकिन सरकारी महकमे में लोग इसी बात के लिए सरकार से हमेशा लड़ते रहे हैं कि महंगाई के हिसाब से उनका भत्ता नहीं बढ़ा है।

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इसमें अभी सबसे ज्यादा बंगाल में हो-हल्ला मचा हुआ है। सरकारी कर्मचारियों का दावा है कि राज्य की ममता बनर्जी सरकार ने बाकी तमाम मामलों में लोगों को राहत दी है लेकिन कर्मचारियों का महंगाई भत्ता रोक लिया है।

दावा किया जा रहा है कि केंद्रीय कर्मचारियों की तुलना में बंगाल के कर्मचारियों का महंगाई भत्ता लगभग 35 फीसदी कम है। इस शिकायत को दूर करने के लिए ही मौजूदा बजट में राज्य सरकार ने तीन फीसदी और महंगाई भत्ता देने की घोषणा की है, लेकिन कर्मचारी इससे संतुष्ट नहीं हैं।

सरकार का दावा है कि इससे अधिक पैसे फिलहाल नहीं दिये जा सकते क्योंकि राज्य के अन्य मदों में भी खर्च करने की जरूरत पड़ती है। मगर कर्मचारी हैं कि लगातार आंदोलन का रास्ता अपना रखा है और बाकायदा उनका अनशन कई दिनों से जारी है। कुछ लोगों की तबीयत भी खराब होने लगी है।

लेकिन सबसे बुरी बात यह है कि काम बंद करके मांग रखी जाए। सरकारी कर्मचारियों का एक वर्ग लगातार अनशन के जरिए सरकार पर महंगाई भत्ता या डीए बढ़ाने का दबाव बना रहा है। इसी दबाव के तहत अब और घनघोर सियासत शुरू की गई है।

इसके तहत सभी कर्मचारियों से दो दिनों के काम बंद की अपील गई जिसके जवाब में सरकार को भी कठोर कदम उठाने के लिए तत्पर होना पड़ रहा है। राज्य सरकार का मानना है कि जो भी लोगों का बकाया है उसे नियत समय पर आहिस्ता-आहिस्ता दिया जा सकता है लेकिन बंद की सियासत की राज्य में कोई गुंजाइश नहीं है।

ज्ञात रहे कि बंगाल में वाम शासन के दौरान बंद की सियासत ने ही राज्य को इस कदर बदनाम किया था कि ज्यादातर निवेशकों ने अपनी पूंजी यहां से हटा लेने का रास्ता अपनाया था। यही वजह रही कि ममता बनर्जी ने सत्ता संभालते ही पहले बंद को ही बंद कर दिया था।

तब से लेकर अबतक राज्य सरकार किसी भी बंद का समर्थन नहीं करती है। ऐसे में कर्मचारियों द्वारा काम बंद करने के फैसले को भी राज्य सरकार ने गंभीरता से लिया है जिसमे यह आदेश दिया गया है कि यदि काम बंद के दिनों में कोई दफ्तर नहीं आता है तो उसकी सेवाओं की समीक्षा की जाएगी।

हो सकता है कि आंदोलनपंथी लोगों को यह कदम नाजायज लगे तथा लोकतांत्रिक अधिकारों की दुहाई देकर कुछ लोग अदालत की शरण भी ले लें मगर वह समय आ गया है जब बंगाल को इस बंद की संस्कृति का कोई विकल्प खोजना चाहिए। किसी भी बंद से समस्या का समाधान नहीं होता-इसे याद रखने की जरूरत है।