मूल्यों का अवमूल्यन

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राजनीति भी अजीब विधा है। इसमें कौन-किसका कब दोस्त बन जाए और कब किसका दुश्मन, यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता। विडंबना तो तब होती है जब दिन के उजाले में दो दोस्त दिखने वाले राजनेता भी रात के अंधेरे में एक दूसरे के शत्रु हो जाया करते हैं। सबसे भयावह स्थिति तब होती है जब किसी चुनाव का माहौल हो। चुनावी माहौल में लगता है कि सबको वनडे मैच की पड़ी होती है लिहाजा उस दिन कोई किसी का सगा नहीं होता। ऐसे में अगर बंगाल की बात करें तो यहां हालत और भी बुरी है। वामपंथी सरकार के जमाने से ही देखा जाता है कि किसी भी स्तर का चुनाव हो, वह बगैर मारपीट या खूनखराबे के संपन्न नहीं होता। ऐसे में बंगाल एक बार फिर से चुनाव के दरवाजे पर खड़ा है जहां पंचायत के तीन स्तरीय चुनाव होंगे। राज्य चुनाव आयोग की ओर से मतदान संबंधी सारे नियम-कानून तय कर दिए गए हैं। हर सियासी दल की ओर से नामांकन की प्रक्रिया भी शुरू कर दी गई है। ऐसे में कुछ दलों के लोग जन-जन तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं।

दरअसल पंचायत चुनावों की अहमियत इसी बात से साबित होती है कि केंद्र या राज्य सरकार की किसी भी परियोजना का खर्च सीधे पंचायतों के जरिए ही लोगों तक पहुंचता है। पंचायतों के निर्वाचित प्रतिनिधि अपने चहेते लोगों को तरह-तरह के लुभावने ऑफर दिया करते हैं। ऐसे में माना जाता है कि बंगाल में सत्तारूढ़ दल के साथ ही विपक्ष भी अब पंचायतों को दखल करने की लड़ाई में कूद पड़ा है। आज कोई किसी को नहीं पहचान रहा है। किसी भी सूरत में जीतने के लिए साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाई जा रही है। इसे नाजायज भी नहीं कहा जा सकता। लेकिन जिन तरीकों का इस्तेमाल किया जा रहा है, अगर ऐसा नहीं होता तो ज्यादा अच्छा होता।

तृणमूल कांग्रेस के सांसद तथा पार्टी के महासचिव अभिषेक बनर्जी लगातार जनसंपर्क अभियान पर निकले हैं। इस अभियान के तहत ही उन्होंने उत्तर 24 परगना जिले के ठाकुरनगर पहुंचने की घोषणा की। उनकी इस अहम यात्रा में जाहिर है कि उनके दल के लोगों के साथ ही पुलिस वाले भी शामिल थे। लेकिन तभी भारतीय जनता पार्टी की ओर से मतुआ संप्रदाय के लोग अभिषेक के विरुद्ध खड़े हो गये। खुद केंद्रीय मंत्री ने उनका रास्ता रोक दिया तथा मतुआ समाज के पूज्य कहे जाने वाले मंदिर में अभिषेक के प्रवेश पर रोक लगा दी गई। इसमें दोनों पक्षों के बीच मारपीट की घटना तथा दो सांसदों का एक-दूसरे को देख लेने की बात करना बंगाल की संस्कृति को कलंकित करने वाला ही है। जिस बंगाल ने कभी पूरे देश को सह-अस्तित्व का पाठ सिखाया, जहां के मनीषियों का गुणगान पूरे विश्व में आज भी होता है-आज वहां की सियासत इतनी घटिया स्तर पर पहुंच गई है कि केंद्र और राज्य के वर्दीधारी एक-दूसरे पर पिल पड़ते हैं। इससे बचने की जरूरत है। दोनों पक्षों को संयम से काम लेने की सलाह दी जानी चाहिए। कोई भी चुनाव जनतंत्र की अग्निपरीक्षा के लिए होता है जिसमें जनता जनार्दन की भागीदारी होती है। चाहे सत्तापक्ष हो या विपक्ष दोनों को ही जनता के हितों का ध्यान रखना होगा। ठाकुरनगर में जो कुछ भी हुआ है वह अति निंदनीय है। एक संप्रदाय विशेष की भावनाओं से खेलकर किसी का भला नहीं होने वाला है। सियासी मजबूरियों को दरकिनार रखकर कम से कम दिखावे का दोस्ताना रिश्ता निभाना भी बुरा नहीं होता।