गांधी और गीताप्रेस

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भारत में आजकल कुछ लोगों के पास बेमतलब का विवाद खड़ा करना ही बड़ा काम रह गया है। दरअसल, कुछ तत्व हैं जो किसी भी मामले में अपने पूरे राजनीतिक ज्ञान का सदुपयोग (?) किया करते हैं। अब एक नया विवाद शुरू किया गया है। गोरखपुर के गीताप्रेस को महात्मा गांधी के नाम का पुरस्कार देना कुछ लोगों को खल रहा है। गीताप्रेस की नीयत पर ही सवाल उठाए जा रहे हैं। यहां तक कि हनुमान प्रसाद पोद्दार की सोच पर भी सवाल खड़े किए जा रहे हैं। कुछ नव समाजवादी लोगों को लगता है कि जातिगत सियासत के साथ-साथ व्यक्तिगत सियासत को भी उछालने का वक्त आ गया है। गांधी के नाम पर अगर गीताप्रेस को पुरस्कार दिया जा रहा है तो इसमें भला किसी को क्या एतराज हो सकता है। गांधी अगर सत्य व अहिंसा के प्रतीक रहे हैं तो गीताप्रेस ने भी कहीं हिंसा को बढ़ावा तो नहीं दिया। दरअसल इस मसले पर जो लोग हो-हल्ला मचा रहे हैं उन्हें न तो गांधी की ही समझ है तथा ना ही वे गीताप्रेस को ही जानते हैं। बस किसी मामले में बोलना जरूरी है, इसीलिए बोले जा रहे हैं। महात्मा गांधी समष्टि के पुजारी थे। उन्हें किसी से भी कोई वैर नहीं था। देश के दुश्मन समझे जाने वाले अंग्रेजों से भी महात्मा गांधी ने दुश्मनों जैसा सलूक नहीं किया। ऐसे में अगर गीताप्रेस में धार्मिक महत्व की पुस्तकें छापी जाती हैं तो इसमें बुराई क्या है। हां, यह बात दीगर है कि गीताप्रेस ने किसी अन्य धर्म के बारे में कम प्रचार किया है।

बच्चों के चरित्र गठन के लिए समयोपयोगी पुस्तकों की तलाश करनी हो तो शायद गीताप्रेस की तुलना में देश में कम ही विकल्प शेष बचेंगे। भारत की पौराणिक और प्रामाणिक ऐतिहासिक पुस्तकों का कम लाभ में प्रकाशन गीताप्रेस ने ही किया। वह गीताप्रेस ही है जिसने रामायण, महाभारत या भगवद्गीता के अलावा सभी वेदों या पुराणों की प्रतियां छाप कर हिंदुस्तानी पहचान को कायम रखने का प्रयास किया है। आज के तथाकथित आधुनिकतावादी लोगों को भले ही पुराणों से या वेदों की जानकारी से कोई पॉलिटिकल बदबू आ रही है, लेकिन सच्चाई यही है कि भारतीय जनमानस आज भी इन पुस्तकों पर ही आधारित है। आज भी अगर रामलीला होती है तो रामचरितमानस की प्रतियां रखी जाती हैं। और तो और, तथाकथित इन बुद्धिजीवियों या जबरन गांधीजीवियों को शायद इतना भी नहीं पता है कि भारत के ज्यादातर राज्यों में लोगों को मरने के बाद जिस गरुण पुराण का पाठ सुनाया जाता है, जो गीता की प्रतियां दान में दी जाती हैं या लोग जो हरि का नाम लेते हैं- वह जीवन पद्धति है, मजहब नहीं। जिन्हें धर्म और मजहब या रिलीजन का अंतर समझ में नहीं आता ऐसे लोग भला गीताप्रेस और गांधी में अंतर क्यों नहीं तलाशेंगे। गीताप्रेस की ओर से दशकों से प्रकाशित पत्रिका कल्याण शायद भारत की उन विरल पत्रिकाओं में शामिल है, जिसमें किसी भी तरह के विज्ञापन नहीं छापे जाते। मतलब यह कि अन्य प्रकाशन संस्थानों की तरह हनुमान प्रसाद पोद्दार का सपना केवल लाभ कमाने का नहीं बल्कि देश की अगली पीढ़ी को उसके अतीत से परिचित कराते हुए सुखद भविष्य के लिए तैयार करने का रहा है। ऐसे संस्थान को यदि गांधीजी के नाम का पुरस्कार दिया जाता है तो इससे पुरस्कार देने वाले का गौरव बढ़ता है, किसी की हेठी नहीं होती। इस मसले पर विवाद खड़ा करने वालों से संजीदगी की अपील की जानी चाहिए।