बापू और सफाई

सिर पर मैला ढो रहे इंसानों की दुर्दशा देखकर गांधी के सपनों के भारत का ख्वाब देखने वाले डॉ. पाठक ने एक नायाब तरीका निकाला जिससे कम से कम सिर पर मैला ढोने की परंपरा बंद हुई। यही कहा जाए तो डॉ. पाठक ने जो काम किया वह गांधी जी को सही मायने में श्रद्धांजलि थी।

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महात्मा गांधी के बारे में एक बात कही-सुनी जाती है जिसमें उन्होंने आश्रम के एक भंगी की तबीयत खराब होने पर उसका मैला साफ किया था। इस गाथा में लोग यही बताते हैं कि गांधीजी के आश्रम में रोजाना जो शख्स मैला सफाई करता था, एक दिन उसकी भी तबीयत खराब हो गई और उसे दस्त आने लगे। गांधीजी ने अपनी पत्नी कस्तूरबा से गंदगी साफ करने की गुजारिश की लेकिन शायद बा की भी तबीयत ठीक नहीं थी। बाद में गांधी जी ने खुद ही उस बीमार आदमी का मैला साफ किया था।

कहने का मतलब यह है कि गांधी जयंती (Gandhi Jayanti) जो देश मनाता है हर साल, उसने आजादी के इतने सालों बाद भी साफ-सफाई का महत्व नहीं समझा। यह गंदगी ही है जिससे कई संक्रामक बीमारियां पैदा हो रही हैं। गांधी जयंती (Gandhi Jayanti) के मौके पर सफाई अभियान के नाम पर स्वच्छता पखवाड़ा जरूर शुरू किया गया है लेकिन इसमें शरीक होने वाले लोग कैमरे के सामने जितनी सफाई की वकालत करते दिखे, शायद सफाई उतनी नहीं हो सकी। गांधी के सपनों को बेचने से ज्यादा जरूरी है कि उन सपनों के साथ जी लिया जाए।

गांधी के सपनों के भारत

सफाई और बापू की बात जब चल पड़ी है तो आजादी के बाद सफाई का व्रत लेने वाले उस शख्स को भी भुलाया नहीं जा सकता जिसने महात्मा गांधी के स्वच्छता अभियान को आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई थी। ये थे डॉ. बिंदेश्वर पाठक। सिर पर मैला ढो रहे इंसानों की दुर्दशा देखकर गांधी के सपनों के भारत का ख्वाब देखने वाले डॉ. पाठक ने एक नायाब तरीका निकाला जिससे कम से कम सिर पर मैला ढोने की परंपरा बंद हुई। यही कहा जाए तो डॉ. पाठक ने जो काम किया वह गांधी जी को सही मायने में श्रद्धांजलि थी।

ब्रिटिश शासकों के दौर में समाज के एक वर्ग को मजबूर किया जाता था कि लोगों के मल-मूत्र वह सिर पर ढोए। आजादी की लड़ाई में भी यह मसला कई बार क्रांतिकारियों के बीच उठा लेकिन चूंकि वह लड़ाई का समय था इसीलिए तब केवल अंग्रेजों को देश से खदेड़ने के तरीकों पर ध्यान दिया जाता रहा। मगर बाद में इस प्रथा को बंद करने की दिशा में गांधी जी के सपने को साकार करने के लिए कई लोग सामने आए। उन्हीं में से डॉ. बिंदेश्वर पाठक भी रहे जिन्होंने बाकायदा सुलभ इंटरनेशनल संस्था के जरिए आम लोगों के मल-मूत्र त्याग की हर संभव व्यवस्था कराई। इसके लिए सरकार के विभिन्न विभागों से समन्वय स्थापित करके विभागीय लोगों को अपने साथ लेकर जिस तरीके से उन्होंने काम को अंजाम दिया, उसे भी गांधी की ही राह कहा जा सकता है।

कूड़ा फैलाने का सिलसिला

देश आज उन सामाजिक कुरीतियों से कुछ हद तक दूर जा चुका है लेकिन चुनावी बयार बहने वाली है। और चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दलों की ओर से फिर से सामाजिक कूड़ा फैलाने का सिलसिला चल पड़ा है। जो लोग राजघाट पर बापू को श्रद्धांजलि दे रहे हैं, उनसे यह अपील की जानी चाहिए कि हो सके तो खुद को एक बार गांधी की जगह पर रखकर देखो। फिर ये जाति-धर्म के नाम पर होने वाली लड़ाई तथा अपने विरोधियों को हर हाल में दुरुस्त कर देने का संकल्प अपने आप मिट जाएगा। गांधी एक ऐसे प्रतीक हैं जिनसे दुनिया के कई देश सबक ले रहे हैं लेकिन भारत के सियासतदान आज भी केवल गांधी को बेच रहे हैं-उनसे सबक नहीं ले रहे। अफसोस इसी बात का है।