गाइडलाइंस अब जरूरी

रोजाना मीडिया के लोग किसी न किसी वीआईपी की सुरक्षा में तैनात पुलिसकर्मियों की गालियां सुनते हैं

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चुनाव हो तो मीडिया मार खाए। दंगे हों तो मीडिया के लोग मारे जाएं। राजनीतिक बवाल हो तो भी मीडिया वालों की पिटाई और किसी की हत्या करनी हो तो भी मीडिया वालों के ही कंधों का इस्तेमाल। अजीबोगरीब माहौल बन गया है देश में। रोजाना मीडिया के लोग किसी न किसी वीआईपी की सुरक्षा में तैनात पुलिसकर्मियों की गालियां सुनते हैं, धकियाए जाते हैं लेकिन विदेशी पिस्तौल लेकर किसी पर यूं हमलावर नहीं हो जाते जैसे प्रयागराज में देखा गया।

ऐसे फर्जी पत्रकारों से बचने के लिए कोई राह निकालनी ही पड़ेगी। दरअसल निरीह जानवरों की खाल ओढ़कर कुछ इंसानी भेड़िए मीडिया को ही सबसे आसान रास्ता बनाते हैं और किसी न किसी बहाने मीडिया टीम में दाखिल भी हो जाते हैं। ऐसे लोगों की पहचान के लिए कोई खास मैकेनिज्म भी अभी तक नहीं बन सका है लिहाजा किसी भी घटना में ऐसे उपद्रवी तत्व मीडियामैन बनकर हाजिर हो जाते हैं।

अजनबी चेहरों को देखकर किसी एक खास न्यूज बिट पर काम कर रहे दूसरे पत्रकार भी चौंकते नहीं हैं क्योंकि उन्हें इस बात का यकीन होता है कि हमारी टीम के साथ जो चल रहा है- वह भी हमारी ही तरह की सोच वाला पत्रकार है। और इसी विश्वास का कुछ लोग गला घोंट दिया करते हैं। कहा जाता है कि देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या भी पत्रकार के लबादे में आए लोगों ने ही नृशंसतापूर्वक कर दी थी।

इस पर अब विराम लगना चाहिए। किसी भी पेशे में घुस आए लोगों की गलत करतूत उस पेशे से जुड़े अन्य लोगों की कर्तव्यपरायणता पर सवाल खड़े करती है। वैसे भी हाल के कुछ दशकों में पत्रकारिता ने अपना बहुत कुछ खोया है। आदर्शों के नाम पर केवल दुकानदारी ही शेष बची है और उस कोढ़ में खाज का काम कुछ राजनेताओं ने कर दिया है जो मीडिया को अपना पिछलग्गू बना बैठे हैं। आज मीडिया भी कई कुनबों में बँट चुका है जिसे किसी न किसी राजनेता का वरदहस्त हासिल है। ऐसे में अब बेहद जरूरी हो गया है कि मीडिया के लोगों के लिए भी कुछ आदर्श गाइडलाइन्स तय कर दिए जाएं।

बड़े मीडिया घरानों से लेकर छुटभैये तक की हालत एक ही जैसी है। कोई भी किसी का सिफारिशी लेटर लेकर हाजिर हो जाता है और देखते ही देखते बड़ा पत्रकार बन जाता है, भले ही उसे न भाषा की समझ हो- न खबरों के क ख ग से ही कोई वास्ता। ऐसे तत्वों की घुसपैठ पर रोक लगनी चाहिए। इसके अलावा किसी प्रेस कांफ्रेस के दौरान कैसे व्यवहार करना है या किस तरह से पेश आना है अथवा जन समस्याओं से जुड़े सवाल कैसे रखने हैं-इसके लिए भी एक आदर्श संहिता गठित होनी चाहिए। अफसोस की बात है कि आजादी के इतने सालों बाद भी पत्रकारिता में ठोस मानदंडों को न तो तय किया गया तथा ना ही प्रेस क्लबों की भूमिका को ही ठीक से परिभाषित किया जा सका है। प्रयागराज की घटना से सबक लेकर अगर केंद्रीय गृहमंत्रालय इस मसले में संजीदगी से काम करे तथा सूचना व प्रसारण मंत्रालय से सामंजस्य रखते हुए प्रामाणिक कार्यविधि का निरुपण करे, तो बात बन सकती है। देर हुई तो अनर्थ होने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता क्योंकि अब आम चुनाव का शंखनाद होने ही वाला है और इसका लाभ उठाकर शरारती तत्व अपने खूंखार मंसूबों को कामयाब करने की साजिश जरूर रचेंगे। प्रयागराज की घटना से सबक लेने का समय आ गया है।