स्वस्थ बनाम गुंडा लोकतंत्र

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किसी भी शासन प्रणाली में अगर कानून से खेलने वालों की बहुतायत हो जाए तो यह कयास लगाने में तकलीफ नहीं होनी चाहिए कि उस शासन प्रणाली का क्या होगा। नए सिरे से चुन कर आये महानुभावों या जनप्रतिनिधियों ने चुनाव आयोग के सामने अपने बारे में जो बखान किया है, उसके आधार पर लोगों को पता चला है कि देश के ज्यादातर राज्यों में चुन कर आए विधायकों में से 44 फीसदी ही दागी लोग हैं। दागी मतलब आपराधिक रिकॉर्ड रखने वाले। अब आम आदमी के लिए यही सबसे अहम सवाल है कि जिन लोगों पर खुद ही अपराध करने का मुकदमा चल रहा हो या जिन लोगों ने सदन में जाने से पहले ही किसी की हत्या की है, अपहरण किया है, डकैती की है, फरेब या जालसाजी की है अथवा किसी की इज्जत लूटी है- वे भला अपने खिलाफ कोई कानून विधानसभा में पारित होने देंगे। और यदि अपने खिलाफ किसी कानून को विधानसभा में पारित नहीं होने देंगे तो समाज में अपराध घटेगा क्या। जाहिर है कि आपराधिक छवि के लोगों की देखादेखी समाज के दूसरे तबके के लोग भी किसी भी कीमत पर विधानसभा या संसद की सदस्यता हासिल करने की कोशिश करेंगे। और यदि अपराध पर अंकुश लगाने या पुराने अपराधिय़ों को उनके अंजाम तक पहुंचाने के लिए विधानसभा में कोई प्रस्ताव लाया भी जाता है तो ये दागी चेहरे उस प्रस्ताव को विधेयक नहीं बनने देंगे। शायद यही वजह थी कि चुनाव आयोग ने चुनाव प्रक्रिया में शामिल होने वाले प्रत्याशियों से अपना हलफनामा दाखिल करने को कह रखा है।

जाहिर है कि चुनाव प्रक्रिया को सुधारने की कोशिश में ही चुनाव आयोग ने प्रत्याशियों के आपराधिक रिकॉर्ड के बारे में जानने का प्रयास किया है जिसके तहत यह जानकारी सामने आई है। अब सवाल यह है कि ऐसे विधायकों को चुनने वालों को दोषी ठहराया जाए या उन्हें अपना टिकट देने वाले दलों को इसके लिए दोषी करार दिया जाए। किसी भी दल की ओर से किसी को प्रत्याशी बनाया जाता है तो पहले उसकी पूरी जानकारी हासिल की जाती है। ऐसे में यह कोई भी दल नहीं कह सकता कि जिसे उसने चुनावी समर में उतारा था, उसके आपराधिक इतिहास का उसे पता नहीं था।

दलों को भी चाहिए कि सार्वजनिक जीवन में जिन लोगों को उतारा जाता है उनकी छवि के बारे में सतर्क हो जाएं। यह सही है कि एक जमाने से ही भारतीय लोकतंत्र में बाहुबलियों को महिमामंडित करने की परंपरा चली आ रही है। लेकिन राजनीति में जबतक आपराधिक तत्वों की घुसपैठ पर रोक नहीं लगती तबतक देश या समाज में पूरी तरह से कानून का राज कायम नहीं हो सकता। इसके अलावा अब मतदाताओं पर भी एक बड़ी जिम्मेवारी आन पड़ी है। घिसे-पिटे मोहरों को बदल कर साफ छवि वाले नेताओं को जो दल चुनाव में उतारे, उसी का समर्थन किया जाए तो हो सकता है कि राजनीति में अपराधी तत्वों की घुसपैठ को रोका जा सकता है। सनद रहे कि सियासत का वह दौर अब जा चुका है जिसमें मनी पावर या मसल पावर के बूते चुनाव जीतने का इतिहास लिखा जाता था। अब भारत में चुनाव प्रक्रिया में सुधार लाने का प्रयास हो रहा है। इस प्रयास को तभी सफलता हासिल होगी जब राजनीतिक दलों के साथ ही जनता भी जागरूक हो। केवल किसी के पैसे के प्रभाव या उसकी गुंडई से डरकर ही अगर मतदान किया गया तो देश का भविष्य खतरे में पड़ सकता है। भावी पीढ़ियों को एक स्वस्थ समाज देना है या बीमार भारत खड़ा करना है-यह फैसला बहुत हद तक मतदाताओं के हाथ में है।