लोकतंत्र में सरकारों के जिम्मे कानून-व्यवस्था की बहाली के साथ ही नागरिकों के लिए जो खास काम सौंपे गए हैं उनमें शिक्षा और स्वास्थ्य का स्थान सबसे ऊपर है। कोई भी इंसान अगर स्वस्थ जीवन जी रहा है तो यह जरूरी नहीं कि उसका स्वास्थ्य हमेशा एक जैसा ही रहेगा। इसी के लिए अस्पतालों का निर्माण किया गया। देश के भावी नागरिकों को शिक्षित बनाने की जरूरत के मद्देनजर ही सरकार की ओर से स्कूल-कालेज-विश्वविद्यालय खोले गए। मगर कालांतर में आर्थिक नीतियों में सुधार के तहत कई कदम उठाए गए। इन कदमों का असर यह हुआ कि सरकारी स्कूलों या सरकारी अस्पतालों की कब्र पर ही निजी संस्थानों की नींव बनने लगी। और देखते ही देखते शिक्षण संस्थानों के साथ-साथ निजी अस्पतालों की भी कतार खड़ी हो गई। इसमें सबसे ज्यादा मुश्किल उन्हें हुई है जो गरीब तबके से आते हैं। कहा जा सकता है कि आर्थिक उदारीकरण ने एक ही देश में दो भारत बना दिया। एक अमीरों का भारत तथा दूसरा गरीबों का भारत। गरीबों के भारत के लिए आज भी सरकारी अस्पतालों के दरवाजे खुले पड़े हैं भले ही वहां इलाज की समुचित व्यवस्था नहीं हो। भले पढ़ाई नहीं हो, मगर सरकारी स्कूल खुले पड़े हैं।
स्वास्थ्य के क्षेत्र में हालात इतने बदल चुके हैं कि जिन डॉक्टरों को भगवान का दर्जा दिया जाता रहा है, उन्होंने भी विभिन्न नर्सिंग होमो को अपनी ठोस कमाई का ठिकाना बना लिया है। रोगी मरते हैं तो बला से। डॉक्टरों की चालाकी के बीच ही फर्मा कंपनियों की चालाकी भी काम करने लगी है तथा जिसे कंपनी की जो मर्जी, अपने हिसाब से जीवन रक्षक दवाओं के दाम वसूलने में लग गई है। सरकार के लिए यह बेहद जरूरी हो गया है कि वह गरीबों के इलाज पर ध्यान दे। ध्यान जबरन इस ओर खिंच आने की वजह भी दिख रही है। नहीं चाहकर भी सरकार को अब गरीबों के हित की बात करनी होगी क्योंकि आम चुनाव दरवाजे पर दस्तक दे रहा है। लेकिन, मजबूरी में ही सही आखिरकार सरकार ने कदम तो उठाया है। सरकार को अब लगा कि आमतौर पर जिन दवाओं का लोग इस्तेमाल करते हैं, उनकी कीमतों को स्थिर करना जरूरी है। फर्मा कंपनियों के दबाव को दरकिनार रखकर मधुमेह, उच्च रक्तचाप, दर्द, गैस की समस्या या विटामिन्स की दवाओं के दाम स्थिर करने का सरकारी फैसला स्वागत योग्य है। लेकिन इसे भी कब और कैसे लागू किया जाएगा, कम कीमत पर खुले बाजार में ये दवाएं आम लोगों को कब नसीब होंगी-इसका दायित्व भी सरकार ने फर्मा कंपनियों पर ही छोड़ रखा है। इस सिलसिले में एक ठोस नीति अख्तियार की जानी चाहिए। दवाओं के अलावा सरकार ने जिस तरह स्वास्थ्य परियोजना के तहत फेयर प्राइस शॉप की व्यवस्था की है या प्रधानमंत्री जनऔषधि केंद्र की स्थापना की है, बंगाल में स्वास्थ्य साथी की शुरुआत की है, उसी तरह स्वास्थ्य परीक्षण के लिए भी कुछ ठोस गाइडलाइंस तय करने का समय आ गया है। आम तौर पर मध्यम वर्ग के लोगों की शिकायत है कि ज्यादातर डॉक्टर्स इलाज करने से पहले ही इतना अधिक परीक्षण करा देते हैं और उनमें इतने पैसे खर्च हो जाते हैं कि लोगों को आगे इलाज कराने की हिम्मत ही नहीं होती। स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकार द्वारा किए जा रहे सुधारों का स्वागत है किंतु ऐसे असाधु तत्वों पर जबतक लगाम नहीं लगती, तबतक कतार में सबसे पीछे खड़े आदमी का भला नहीं हो सकता। सरकार इस दिशा में आगे पहल करे तो कोई बात बने।