खूंटी : जिला मुख्यालय से 40 किलोमीटर दूर कर्रा प्रखंड के जरियागढ़ का कांसा बर्तन उद्योग वहां रहने वाले कंसारियों(कसगढ़िया समाज) की सदियों पुरानी विरासत का प्रतीक है। इस गांव में तीन सौ वर्षों से भी अधिक समय कांसा उद्योग निबार्द्ध रूप से जारी है, भले ही इस पुस्तैनी धंधे के संरक्षण और संबर्द्धन को लेकर सरकार द्वारा कोई पहल नहीं की गई है। आज भी जरियागढ़ के लगभग 150 परिवार इसे पेशे से जुडे हैं। कांसा के बर्तन, कांसा थाली, कांसा कटोरा, कांसा की घंटी, घंट, घंटा झांझर और कांसा चिप्पा (छोटा प्लेट) आदि का निर्माण कर उन्हें गांव-गांव में घूमकर बेचना कंसारी समाज का खानदानी पेशा है। कंसारी समाज के लोग बताते हैं कि मूल रूप से उनके पूर्वज लगभग तीन सौ वर्ष पहले ओडिशा के संबलपुर से जरियागढ़ आये थे। जरियागढ़ रियासत के तत्कालीन राजा ने उन्हें बसाया था और तभी से उनका यह पेशा अनवरत जारी है।
बर्तन बनाने में नहीं होता किसी मशीन का उपयोग
कंसारी समाज के इस पुश्तैनी पेशे की खास बात यह है कि कांसा बर्तन, थाली, कटोरा सहित अन्य उत्पादों के निर्माण में किसी भी छोटी या बड़ी मशीन का उपयोग नहीं किया जाता। सभी काम लोग अपने हाथों से करते हैं। कांसा उद्योग से जुड़े कारीगर बताते हैं कि समुदाय उत्पादों के लिए कच्चे माल के रूप में स्थानीय घरों और दुकानों से टूटे हुए कांसे के बर्तनों को इकट्ठा करता है। प्रमाणिकता सुनिश्चित करने के लिए सावधानीपूर्वक निरीक्षण के बाद बर्तन बनाने की प्रक्रिया हर रात लगभग एक बजे शुरू होती है। एक विशिष्ट सांचे का उपयोग कर 45 कारीगर कच्चे माल को पिघलाकर गोल आकार देते हैं। आग और औजारों के साथ लगातार काम कर खुरदरी आकृति हासिल की जाती है। इस पूरी प्रक्रिया में करीब पांच से छह घंटे का समय लगता है। एक अलग टीम व्यवस्थित रूप से बर्तन को छीलती है, जबकि महिलाएं इसे अंतिम रूप देती हैं। उन्होंने बताया कि कांसा बनाने के लिए 78 फीसदी तांबा और 22 प्रतिशत रंगा(टिन) को मिलाकर 400 से 700 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर गलाया जाता है। इसमें भी कोयले की आग का उपयोग किया जाता है। उसके बाद पांच-छह लोगों द्वारा उसे बड़े हथौड़े से पीटा जाता और कारीगरों का दूसरा समूह इस कांसे को अलग-अलग रूप देता है।
स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद हैं कांसा के बर्तन
तोरपा क्षेत्र के जानेमाने वैद्य बुधु गोप बताते हैं कि कांसा के बर्तन में खाना या पानी पीना स्वस्थ्य के लिए काफी लाभदायक है। उन्होंने कहा कि हमारे प्राचीन आयुर्वेद ग्रंथों में कांसा बर्तन के उपयोग का विस्तृत उल्लेख है। कांसा के बर्तन में खाने से प्राकृतिक गुण (क्षारीकरण प्रकृति), त्वचा की स्थिति में सुधार, तंत्रिका तंत्र को मजबूत करना, मोटापा कम करना, दृष्टि में सुधार, रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाना, हीमोग्लोबिन का स्तर बढ़ाना सहित कई गुण कांसा में है। यही कारण है कि हमारे पूर्वज खाने-पीने में कांसा के बर्तनों का उपयोग करते थे।
किसी को नहीं मिली सरकारी नौकरी
जरियागढ़ के कंसारियों का दुखद पहलु यह है कि लगभग 1500 आबादी वाले इस समुदाय के किसी भी व्यक्ति का जाति प्रमाण पत्र नहीं बना। इसके कारण इस समाज के किसी भी व्यक्ति को सरकारी नौकरी नहीं मिली। इस सबंध में कंसारी समाज के लोगों का कहना है कि कंसारी अपना उपनाम कंसारी, साहू, राणा, महापात्र, कसगढ़िया सहित कई उपनाम है, जबकि सभी एक जाति के हैं। इसके बावजूद किसी का जाति प्रमाध पत्र आज तक नहीं बन सका।
उपायुक्त ने किया दौरा, कारीगरों को दिया आश्वासन
खूंटी के नये उपायुक्त लोकेश मिश्र ने जरियागढ़ ग्राम का भ्रमण कर ग्रामीणों द्वारा बनाए जा रहे कांसा के उत्पादों का अवलोकन किया। भ्रमण के दौरान उन्होंने ग्रामीणों के साथ बैठक की और उनसे सीधी वार्ता कर उनका उत्साहवर्धन किया। डीसी ने निर्मित उत्पाद का अवलोकन कर उत्पादान की पूरी प्रक्रिया की जानकारी ली। मौके पर इस पारम्परिक उत्पाद को कैसे व्यवसाय के रूप में स्थापित करें और इससे जुड़े सभी परिवारों की आजीविका को कैसे बेहतर करें, इस पर विस्तार से चर्चा की गई। उन्होंने कहा कि इस खानदानी पेशे से जुड़े कारीगरों को प्रशासन द्वारा प्रशिक्षण दिया जायेगा और उनके उत्पादों के लिए बाजार की व्यवस्था की जाएगी। कांसा कार्य से जुड़े परिवारों की एक सहकारिता समिति का गठन करने पर भी चर्चा की गई। उपायुक्त ने बताया कि प्रशासन जारियागढ़ के शिल्प को सक्रिय रूप से बढ़ावा देने के लिए प्रयास कर रहा है। इसमें ग्रामीणों को जागरूक दृष्टिकोण के साथ आगे आने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि कांसा से सम्मानित प्रतीकों के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण प्रतीकों की मूर्तियां बनाई जा सकती हैं। इससे विभिन्न सरकारी विभागों से कंसेरा समुदाय के उत्पादों की बड़ेगी और एक स्थिर बाजार मिलेगा।