इसे कहते हैं लोकतंत्र। इसमें हर नागरिक को सरकार से सवाल पूछने का हक होना चाहिए। लेकिन पता नहीं क्यों भारतीय शासकों को आम लोगों के सवालों से चिढ़ होती जा रही है। हकीकत तो यह है कि भारत में किसी शासक से कोई सवाल करे तो पहले उसके सवाल के जवाब में गोल-मटोल जवाब देने की कोशिश की जाती है और बाद में पूरा उसका आशियाना ही उजाड़ देने का प्लान बना दिया जाता है। जनता इसी आतंक से परेशान हो रही है और चाहकर भी शासकों से वाजिब सवाल तक नहीं पूछ पाती। लेकिन इससे उलट अमेरिका ने साबित किया है कि वहां आज भी लोकतंत्र जिंदा है और लोग आराम से अपने शासक से सवाल पूछने का हक रखते हैं। यह बात दीगर है कि वहां के शासक भी लोगों के सवालों का जवाब नहीं देते, चिढ़ जाते हैं और प्रेस कांफ्रेंस छोड़कर बाहर निकल जाते हैं। लेकिन सवाल पूछने वालों का सूपड़ा साफ करने की साजिश नहीं रचा करते भारतीय शासकों की तरह।
इसे भी पढ़ें: सपने में जीने की आदत
दरअसल लोकतंत्र की खूबसूरती इसी में है कि जो लोग किसी सरकार को चुनते हैं, उन्हें उस सरकार से सवाल पूछने का भी हक होना चाहिए। और सवाल पूछने वालों को देश का दुश्मन नहीं समझा जाना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से भारत में ऐसा नहीं होता। ध्यान देने की जरूरत है कि जो शासक जनता के सवालों से भागते हैं और सत्ता के मद में चूर रहते हैं, जनता भी वक्त आने पर उन्हें उनकी औकात समझाने में कोई कसर नहीं छोड़ा करती। हुआ यह है कि अमेरिका के दो बड़े बैंकिंग संस्थान इन दिनों दिवालिया हो चुके हैं। सिलिकन वैली बैंक के अलावा सिग्नेचर बैंक ने भी अपने हाथ खड़े कर दिए हैं। समझा जाता है कि कुछ अन्य बैंक भी इस कड़ी में जल्द ही शामिल हो सकते हैं। इन घटनाओं के सिलसिले में पत्रकारों ने अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन से एक प्रेस कांफ्रेंस में कुछ सवाल पूछे। सवाल भी सीधे और सपाट थे। पत्रकार जानना चाह रहे थे कि अब किस बैंक की बंद होने की बारी है तथा जो बैंक दिवालिया हो गए हैं-उनके बारे में सरकार की सोच क्या है। बैंकों के बंद होने का अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर क्या असर होगा-यह भी एक सवाल था। इन सवालों के जवाब देने में असमर्थ जो बाइडन ने किसी को गाली देने या आंखें दिखाने की कोशिश नहीं की। किसी पत्रकार के मीडिया संस्थान को धमकाने की बात भी नहीं की। बस, चुपचाप वहां से निकल लिए। यह है अमेरिकी प्रशासन की सालीनता।
भले ही हम भारतीय अपने लोकतंत्र को महान बताते नहीं थकते, अपने राजनेताओं को भगवान का दर्जा देते हैं लेकिन सच यही है कि भारतीय राजनेताओं में लोकतंत्र के प्रति वह सम्मान नहीं है, जिसकी बानगी अमेरिका में देखी गई। यहां जिस पत्रकार ने सरकार के लोगों से तीखा सवाल किया हो, उसे या तो शहरी नक्सलवादी करार दिया जाता है या फिर किसी आतंकी गिरोह से उसका नाम जोड़ दिया जाता है। इससे भी काम नहीं चले तो उस पत्रकार के मीडिया हाउस को ही तहस-नहस कर दिया जाता है ताकि फिर किसी की हिम्मत न हो कि हुजूर-ए-आला से कोई ऐसा-वैसा सवाल करे। भारतीय शासकों को लोकतंत्र की सही परिभाषा अभी अमेरिकी प्रशासन से सीखनी होगी। केवल अपने मुंह अपनी तारीफ करने से कोई महान नहीं बन जाता। किसी मशहूर कवि ने लिखा है-
किस तरह कुल की बड़ाई काम दे
जो किसी में हो बड़प्पन की कसर।