जरा हटके, जरा बचके

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समाज हमेशा किसी कानून की किताब के हिसाब से ही चलता रहे, यह जरूरी नहीं। अलबत्ता इसे सही तरीके से चलाने के लिए कुछ स्वयंसिद्ध नियम जरूर बनाए गए हैं। उनकी भी आज अलहेलना हो रही है, यह बात दीगर है। लेकिन कोई चाहे कि हमेशा कानून के डंडे से ही समाज को चलाया जाए, यह कदाचित संभव नहीं है। और यही वजह है कि कानून भी पारंपरिक घटनाओं का सम्मान करता है जिसके तहत देश में हर धर्म के त्यौहारों पर सरकारी अवकाश दिया जाता है। एक-दूसरे के त्यौहारों में लोग शरीक होते हैं, बधाइयां देते हैं। इसे कहते हैं सामाजिक नियम। इन सामाजिक नियमों के तहत ही कुछ बातें स्वयंस्वीकृत होती हैं। उन पर सवाल नहीं उठाए जाते। सामाजिक मान्यताओं के अलावा कुछ ऐतिहासिक घटनाएं भी होती हैं जिन्हें अप्रिय होने के बावजूद मान लेना पड़ता है। इन्हीं अप्रिय घटनाओं में से एक यह भी है कि हमारा आज का प्यारा भारतवर्ष सदियों तक गुलाम रहा है। इसे चाहकर भी झुठलाया नहीं जा सकता। गुलामी हमारे अतीत का कोढ़ है जिसे ठीक करने के लिए हमारे लाखों पूर्वजों ने कुर्बानियां दी हैं। उनकी कुर्बानियों के कारण आज हम दुनिया की दौड़ में खुद को शामिल कर पा रहे हैं या विश्व बिरादरी के साथ विमर्श कर पा रहे हैं। सारांश यह है कि आज कुछ भी कर लें,हम सदियों की गुलामी के दाग धो नहीं सकते। विश्व इतिहास में इस बात की गवाही भी मिल जाएगी कि भारत ने दुनिया को तब सभ्यता का पाठ पढ़ाया जब इंसान सभ्यता नाम की चीज से वाकिफ नहीं था।

मतलब यह कि हम वर्तमान को निखार जरूर सकते हैं, अपने क्रियाकलाप पर मुलम्मा चढ़ाकर खुद को कद्दावर भी साबित कर सकते हैं- किंतु इतिहास नहीं बदल सकते। अफसोस, मोदी सरकार यही कर रही है। जवाहरलाल नेहरू के नाम से दिल्ली में अगर कोई संग्रहालय या पुस्तकालय हो भी तो इससे देश को बहुत नुकसान नहीं होने वाला। इसके ठीक उलट अगर पंडित नेहरू का नाम बदलकर भी किसी भवन का नाम कुछ और रखा जाए तब भी उससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। नाम बदलने से इतिहास नहीं बदला करते। देश की आजादी के समय भारत के पहले प्रधानमंत्री के तौर पर पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ही नए भारत के गठन का सपना देखा था- यह इतिहास की वह घटना है जिसे कोई चाहकर भी मिटा नहीं सकता। देश के पहले पीएम ने ही आधी रात को आजादी मिलने के बाद लाल किले पर पहली बार तिरंगा लहराया था। इस सच को झुठलाया नहीं जा सकता। नेहरू ने ही देश के आजादी के तुरंत बाद अपने कैबिनेट के अन्य सहयोगियों की मदद से लौह-इस्पात कारखानों को देश के विभिन्न हिस्सों में स्थापित करने का सपना देखा था। यह भी सही है कि कथित तौर पर नेहरू की लचर विदेश नीति के कारण ही चीन ने भारत पर 1962 का युद्ध थोप दिया था, मगर इसे भी भूलना नहीं चाहिए कि देश के कई हिस्सों में उर्वरक संयंत्र स्थापित करने का सपना भी पं. नेहरू ने ही देखा था। ऐसे में नेहरू विरोध के कारण यदि मौजूदा सरकार पुरानी यादों को मिटाने पर तुली है तो इसे कतई प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता क्योंकि पीएम मोदी देश के ऐसे नेता हैं जिनके नाम पर उनके पीएम रहते ही एक स्टेडियम बन गय़ा है। इतिहास कल कहीं खुद को दोहरा न दे। आगे बढ़ें लेकिन सावधानी से।