किसी दीर्घाकार परिसर में अगर हल्की आवाज में कोई बाजा बजाया जाए तो उस वाद्य यंत्र का असर उस परिसर पर नहीं होता है। इसे ही कहा जाता है – नक्कारखाने में तूती की आवाज। फिर भी कुछ लोग आदतन अपना राग अलापते रहते हैं। यही बीमारी आजकल राष्ट्रसंघ या यूएन में देखी जा सकती है।
दुनिया के हर मामले में अपनी राय देने और खास देशों की चमचागिरी करने में माहिर यूएन ने फिर अपनी आवाज बुलंद की है। उसकी ओर से अफगानिस्तान में शासन कर रही तालिबानी सरकार को फटकार लगाते हुए कहा गया है कि लड़कियों को पढ़ने से मना नहीं किया जाए।
यूएन का मानना है कि अगर लड़कियों को शिक्षा से दूर रखा गया तो देश की भावी पीढ़ियां इंसानियत की राह से भटक जाएंगी। यही है नक्कारखाने में तूती की आवाज। लेकिन यूएन की सलाह की हकीकत को भी समझने की जरूरत है।
यूएन की ओर से अफगानिस्तान सरकार को मदद दी जा रही है जिससे वहां विकास के कामों को आगे बढ़ाया जा सके। मगर सवाल यह है कि तालिबान सरकार से कोई बात मनवा लेने की यूएन के पास कुँजी क्या है।
खुद अमेरिका भी इस मामले में पस्त हो चुका है। बीस साल तक अमेरिका ने अफगान धरती पर अपने फौजियों को टिकाए रखा। लोगों को लोकतंत्र की राह पर चलने का मंत्र सिखाता रहा। उस दौरान भी तालिबान के छापामार लड़ाकों से अमेरिकी फौज लगातार लोहा लेती रही। लेकिन तब भी तालिबानी ताकतों को अमेरिका कुचल नहीं सका और लोकतंत्र बहाली की उसकी कोशिशें पूरी तरह जब नाकाम होने लगीं तो अमेरिकी प्रशासन को मजबूरन अपने फौजियों को वापस बुला लेना पड़ा।
पूछा जा सकता है कि काबुल में अमन कायम करने गए अमेरिका को आखिर कैसा अमन दिखा कि वह उल्टे पैर अपने घर वापस गया। जाहिर है कि अमेरिकी फौज को इस बात का एहसास हो गया कि न्यूयार्क में बैठकर अफगान धरती को नियंत्रित नहीं किया जा सकता।
आज यूएन की आड़ में वही अमेरिका बैठा है। उसे तालिबान की सोच के बारे में पता है। यूएन भी जानता है कि तालिबानी सरकार कथित तौर पर इस्लामी तौर-तरीकों की हिमायती रही है तथा उसे शरीयत कानून के तहत ही वहां की सरकार चलानी है।
कथित तौर पर तालिबानी शासकों को अगर लगता है कि इस्लाम उन्हें लड़कियों की पढ़ाई या उनकी आजादी पर पाबंदी लगाने की इजाजत देता है, तो भला वे किसी की सलाह मानकर अपनी सोच को कैसे बदलेंगे। सच तो यह है कि जिस दिन अमेरिका ने अफगानिस्तान को तालिबान के भरोसे छोड़ दिया, उसी दिन से महिलाओं के बुरे दिन शुरू हो गए।
किसी को फटकारने से बेहतर है कि उसे इंसानियत की तालीम दी जाए। तालिबान को यह समझाना होगा कि आपकी महिलाएं अशिक्षित रहीं तो देश की भावी पीढ़ियां मानसिक तौर पर अविकसित होंगी। कालांतर में इससे अफगानिस्तान ही कमजोर होगा। लड़कियों को शिक्षा से रोकने या जिम में जाने पर रोकने से किसी मजहब को नुकसान नहीं हो सकता।
ज्ञात रहे कि इसी मसले को लेकर पाकिस्तान की मलाला यूसुफ जई को भी आतंकी संगठनों की गोली का सामना करना पड़ा था। महिलाओं को अशिक्षित रखने की इस सोच में बदलाव करके ही देश या पूरे विश्व का विकास हो सकता है। तालिबान को भी इस बारे में आज नहीं तो कल-सोचना जरूर होगा।
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