गतिरोध मिटना जरूरी

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बंगाल में पंचायत चुनाव का शंखनाद हो चुका है। पहले राज्य के निर्वाचन आयुक्त को लेकर ही सरकार माथापच्ची करती रही। बाद में राजीव(राजीवा) सिन्हा के नाम पर राज्यपाल सीवी आनंद बोस ने मंजूरी दे दी। श्री सिन्हा ने निर्वाचन अधिकारी का पद संभालने के दूसरे दिन ही राज्य में पंचायत चुनाव का ऐलान कर दिया। एक ही चरण में मतदान की बात कही गई। काफी कम समय में ही पर्चा दाखिल करने को कहा गया जिसके बाद से बंगाल में हिंसा शुरू हो गई। सत्तारूढ़ दल तथा विपक्ष के बीच लगभग हर जगह से मारपीट की वारदातें सामने आने लगीं।

मारपीट चलती रही, लोगों की कथित तौर पर हत्याएं होती रहीं। शिकायतों का अंबार सामने आता रहा लेकिन आयोग की ओर से यही दावा किया गया कि पंचायतों के लिए पर्चे दाखिल करने की प्रक्रिया शांतिपूर्ण रही। तमतमाए विपक्ष ने अदालत का रुख किया जिसमें अदालत ने चुनाव आयोग को कई तरह के निर्देश दिए और केंद्रीय सुरक्षा बलों की मौजूदगी में मतदान कराने का सुझाव दिय़ा। आयोग को यह बात खल गई। फिर आयोग ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, वहां भी उसे मुंह की खानी पड़ी। लौटकर फिर कलकत्ता हाईकोर्ट में पहुंचे आयोग को खरी-खोटी सुनने को मिली है। जिस भाषा का प्रयोग हाईकोर्ट ने राज्य के निर्वाचन आयुक्त के बारे में किया है, उससे किसी के भी लिए अपनी जगह पर टिके रहना असंभव है। हाईकोर्ट का साफ कहना है कि अगर केंद्रीय बल बुलाने में आयुक्त असमर्थ हों तो कुर्सी छोड़ दें।

ऐसे में अचानक राज्यपाल का एक कठोर कदम नैतिक रूप से निर्वाचन आयोग को आगे बढ़ने से रोकने में सक्षम है। दरअसल राज्यपाल ने ही निर्वाचन आयुक्त को नियुक्त किया था लेकिन नियुक्ति से संबंधित जो रिपोर्ट आयोग की ओर से राज्य सरकार ने राज्यपाल के अनुमोदन के लिए भेजी, उसे राज्यपाल ने ठुकरा दिया है। इससे एक संवैधानिक गतिरोध पैदा हो जाता है। अगर किसी ने किसी की नियुक्ति कुछ दिन पहले ही की हो और बाद में नियोक्ता ही उस नियुक्ति की स्वीकृति से पल्ला झाड़ ले, तो जिसकी नियुक्ति की गई है उसके पास आगे काम करने की कोई वजह नहीं रह जाती। गतिरोध पैदा हो गया है। वह भी ऐसा गतिरोध जिसकी अबतक कोई मिसाल देश में नहीं देखी गई है। समझा जाता है कि कलकत्ता हाईकोर्ट की कठोर टिप्पणी से परेशान होकर ही राज्यपाल ने ऐसा कदम उठाया होगा। लेकिन सवाल यह है कि आखिर राज्य का चुनाव आयोग अदालतों के चक्कर क्यों लगा रहा है। आखिर जो चुनावी हिंसा हो रही है, उसे आयोग क्यों नहीं देख पा रहा है। जो घटनाएं सीधे राज्यपाल या सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाती हैं, उन्हें राज्य का चुनाव आयुक्त कैसे नजरअंदाज कर देते हैं। आखिर किसके इशारे पर ऐसा हो रहा है। संविधान के साथ-साथ यह राज्य की जनता के साथ भी अन्याय है। यदि इसे अन्याय समझा जाता है तो राज्य सरकार को ही इसमें आगे आना होगा। सत्ता के दो केंद्र लोकतांत्रिक प्रणाली में नहीं हो सकते। चुनावी हिंसा की जो खबरें राज्य के चुनाव आयुक्त तक नहीं पहुंच रही हैं, उन्हें अगर राजभवन के पीस सेंटर तक पहुंचाया जाता है या राजभवन उन घटनाओं की समीक्षा में जुट जाता है तो इससे जनता में भ्रम पैदा होगा। इस गतिरोध को तुरंत दूर करना होगा ताकि राज्य में पंचायत चुनाव शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न कराए जा सकें। इसमें राज्य सरकार के साथ ही राजभवन को भी काफी संजीदगी और सावधानी से काम करने की जरूरत है। संवैधानिक संकट पैदा करने से समस्या का हल नहीं हो सकता।