पड़ोसी की फीकी धौंस

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समाज या दुनिया केवल उसी की कद्र करती है जिसमें कथनी और करनी का सामंजस्य हो। लेकिन वह जिसने सिर्फ बोलना ही सीखा है, उसकी बोली का कोई हमत्व होता नहीं है। इसी प्रसंग में ऐसे ही कुछ बोलने वाले तत्वों का नाम उछलने लगा है। मौका है क्रिकेट का। पता चला है कि पाकिस्तान क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की ओर से कहा जा रहा है कि विश्वकप की प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए पाकिस्तानी टीम भारत के दौर पर जाएगी लेकिन एक शर्त है। शर्त यह है कि एशिया कप की प्रतियोगिता में शरीक होने के लिए भारत को भी पाकिस्तान की धरती पर आना होगा।

शर्त अच्छी है। मगर रखने वाले को अपने गिरेबान में भी कभी-कभार झांक लेना चाहिए। पाकिस्तान के साथ भारत ने हमेशा से पहले दोस्ताना रिश्ता ही निभाना चाहा मगर भारत की हर कोशिश का जवाब सीमा-पार से उल्टा ही आता रहा है। पाकिस्तान की धरती पर जाकर खेलना नहीं पड़े इसके लिए भारत की ओर से किसी निरपेक्ष देश के चयन का प्रस्ताव रखा गया है। हो सकता है कि पाकिस्तान भी भारत आने के बजाय किसी निरपेक्ष देश के चयनकी बात करे। ऐसा कहना मुनासिब भी है। लेकिन पाकिस्तान ने अतीत में जो कुछ भी किया है, उन घटनाओं को याद रखा जाए तो शायद किसी भी सूरत में भारत के आम खेल प्रेमी देश की सार्वभौमिकता के साथ साजिश करने वाले पाकिस्तानियों के भारत आने का स्वागत नहीं करेंगे। भलमनसाहत भी ऐसे लोगों के साथ ही दिखाई जाती है जो उसके पात्र हों। कम से कम पाक को यह हक नहीं बनता कि भारत उसके साथ किसी भी तरह की भलमनसाहत दिखाए।

इसके अलावा कई और भी समस्याएं हैं। जो पाकिस्तान आज शर्तें रखने लगा है उसे यह भी पता होना चाहिए कि वह दुनिया में किसी भी देश के समक्ष की शर्त रखने के काबिल नहीं है। यह वही पाकिस्तान है जहां स्टेडियम में श्रीलंका के साथ हो रहे खेल के दौरान ही आतंकी हमला हुआ जिसमें क्रिकेटरों को भागकर जान बचानी पड़ी थी। तब से आजतक क्रिकेट विरादरी के लोग पाकिस्तान में खेलने के नाम से ही जल-भुन जाते हैं। जो देश अपनी अवाम को सुरक्षा नहीं दे पाता, जहां के स्कूलों में भी बंदूकधारी घुसकर बच्चों को गोलियों से भून डालने का माद्दा रखते हैं- वह किसी भी देश के सामने शर्त रखता है तो इसे हास्यास्पद ही कहा जाएगा। गनीमत है कि पाकिस्तान को अभी भी क्रिकेट की विश्वविरादरी ने ब्लैक लिस्टेड नहीं किया है। ऐसे में शर्त रखकर अपनी जगहंसाई से पाकिस्तान क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को बचन चाहिए।

चले गये वे दिन जब दो देशों के रिश्तों में आई दरार को पाटने की कोशिश क्रिकेट डेप्लोमेसी के जरिए हुआ करती थी। उस डिप्लोमेसी का भी असर देखा गया है। नवाज शरीफ और परवेज मुशर्रफ के शासन का दौर समाप्त हुए अभी बहुत दिन नहीं हुए। बार-बार क्रिकेट के जरिए दोनों पड़ोसी मुल्कों में दोस्ताना रिश्ते कायम करने की बातें होती थीं, बैठकें होती थीं और नतीजे में क्या मिलता था- मिसाल के लिए कारगिल। ऐसे में बेहतर यही  है कि पाकिस्तान शर्त रखने की नाजायज कोशिश से परहेज रखकर खेल को खेल की भावना से खेलने की बात करे। इस खेल से होने वाली आमदनी कम से कम दरवाजे-दरवाजे भीख मांगने की पाकिस्तान सरकार की मजबूरी को कुछ हद तक कम ही करेगी। अगर बात फिर भी समझ में नहीं आती है तो फिर…।