राह कठिन है. तरह-तरह की बाधाएं हैं. एक ओर जहां लोकतंत्र को बचाने की चिंता है, वहीं दूसरी ओर कारोबारी प्रतिस्पर्द्धा लगातार मीडिया की राह में रोड़े अटका रही है. कहने को संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों का पूरी तरह से पालन हो रहा है, लेकिन हकीकत यह है कि सच को ढकने के लिए करोड़ों झूठ परोसने का सिलसिला खुद सरकारी बाबुओं ने चला रखा है. आम इंसान के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए लोग जिस तरह मीडिया से मुखातिब हुआ करते थे- उस मीडिया का भी हाल यह है कि पत्रकारों के नाम पर भांड़ पाले जा रहे हैं. जाहिर है कि यह भी सरकारी साजिश के तहत ही हो रहा है.
दरअसल जनता की आवाज को दबाने की तमाम कोशिशें आजादी के बाद से ही कमोबेश की जाती रही हैं. फिर भी सियासत में एक तबका जरूर हुआ करता था, जो अपने धुर विरोधियों का भी सम्मान करता था. तब विरोधियों के लिए भी अपशब्दों का प्रयोग नहीं के बराबर होता था. लेकिन धीरे-धीरे सबकुछ बदलता गया. समाज के साथ-साथ परिवारों और सियासत में भी सहिष्णु (बर्दाश्त करने वाले) लोगों की कमी देखी जाने लगी है. आज हालात इतने बदतर हैं कि राजनेता ही नहीं, आम लोग भी एक खास बीमारी से ग्रस्त हैं. बीमारी का नाम है इनटॉलरेंस या असहिष्णुता. मतलब किसी विरोध या शिकायत को बर्दाश्त नहीं कर पाने की आदत. इस आदत का शिकार आम आदमी है, समाज है और उसके साथ ही पूरी लोकशाही भी है. लेकिन आम लोगों की बीमारी अगर सरकार चलाने वालों में भी समा जाए, तो देश का बेड़ा गर्क हो सकता है.
इसी बात को ध्यान में रखते हुए मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा गया है. अदालतें आज भी मीडिया के उस किरदार को मानकर चलती हैं. लेकिन राजनेताओं का एक वर्ग इसे अपने इस्तेमाल की चीज बनाने पर तुला है. जिस समाज में सच बोलने वालों की संख्या घट जाए- वह समाज, देश व संस्कृति ही लुप्त हो जाएगी. लोकतंत्र की पहरेदारी की राह में रोड़ा अटकाने वाले चेहरों से जनता को सावधान करने की दिशा में ही सूत्रकार समाचार की यह पहल है. उम्मीद है सबका सहयोग मिलेगा.