पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता का इतिहास काफी समृद्ध रहा है। यहां देश के बड़े-बड़े मनीषी पैदा हो चुके हैं जिन्होंने भारत को नई दिशा दी। ब्रिटिश शासनकाल में तब के कलकत्ता शहर को देश की राजधानी बनने का गौरव हासिल था। यहां तक कि अंग्रेजी शिक्षा के प्रचलन में आने के बाद देश का पहला विश्वविद्यालय भी कलकत्ता (कोलकाता) में ही बना, जिसे लोग कलकत्ता विश्वविद्यालय के नाम से जानते हैं। जाहिर है कि तब के लोगों की सोच रही होगी कि कोलकाता शहर को विद्याध्ययन का प्रमुख केंद्र बनाया जाए। लेकिन कालांतर में यही देखा गया कि देश के शिक्षण संस्थानों में अगली कतार में खड़ा होने वाले कलकत्ता विश्वविद्यालय की हालत दयनीय होती चली गई। आज के हालात और बदतर हो गए हैं जिनमें हाल के सर्वेक्षण से पता चला है कि पूरे भारत में कलकत्ता विश्वविद्यालय का स्थान 10 वें स्थान से खिसक कर 12 वें पायदान पर आ लगा है।
इसके लिए किसे दोषी ठहराया जाए, यह एक यक्ष प्रश्न है। दोष कोई भी अपने मत्थे लेना नहीं चाहता। सफलता का श्रेय बाँटने वालों की कतार ही खड़ी हो जाया करती है। लेकिन कोलकाता के विद्वत समाज को ही यह तय करना होगा कि इस शहर की बौद्धिक यात्रा कहां जाकर ठहरेगी। आरोप यही लगते रहे हैं कि पहले वामपंथी सरकार ने ही विश्वविद्यालय की रीढ़ कमजोर करने का काम किया। और बाद में नई सरकार के आने के बावजूद राजनीति की धारा नहीं बदली। नतीजा यह है कि विश्वविद्यालयों को पढ़ाई से ज्यादा राजनीति का केंद्र बनाया जाने लगा। अपनी पसंद के लोगों को विश्वविद्यालय संचालन की शीर्ष कुर्सी पर बिठाने का दौर चला जिससे विद्यार्थी भी पढ़ाई से विमुख होते चले गए। उनका काम किसी छात्र संगठन से जुड़कर अपने सियासी आका को खुश करने वाले कार्यक्रमों को सफल बनाने का हो गया जिससे बाकी छात्रों को भी पढ़ाई से अलग छात्र यूनियनों का सहचर बनाने का दौर शुरू हो गया। ऐसा भी देखा गया है कि कुछ कालेजों में होने वाले छात्र संघ के चुनाव में भी उस मुहल्ले के गुंडे तक शामिल होने लगे जिससे शिक्षण संस्थान पूरी तरह सियासत के केंद्र बनते चले गए।
विद्यार्थियों का साहस बाहर बैठे आकाओं के इशारे पर इतना बढ़ा कि विश्वविद्यालय के बड़े से बड़े अधिकारी भी छात्रों की मांगों को पूरा करने में ही अपनी भलाई समझने लगे। छात्रों की बातें नहीं सुनने वालों का उनका दफ्तर में रात भर घेराव किया जाने लगा और सरकारें ऐसी घटनाओं को और भी मान्यता देने लगीं। आज हालत बद से बदतर हो गई है। जिन विद्यार्थियों ने सरकार में बैठे अपने आकाओं के बूते विश्वविद्यालय को राजनीति का अखाड़ा बनाया, कक्षाओं का बहिष्कार कर सियासी जुलूसों और सभाओं की भीड़ बढ़ाई-आज पूछा जा सकता है कि उन्हें अंत में क्या मिला। बंगाल के विद्यानुरागी लोगों को इस मामले में अब सोचना होगा। आज इस गंभीर मसले पर सोचने के बजाय अगर बंगाल के बुद्धिजीवी खामोश रह जाते हैं तो वह दिन दूर नहीं जब कलकत्ता विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण होने वाले विद्यार्थियों की पूरे देश में कहीं पूछ नहीं होगी। सियासी खेल खेलने वाले राजनेताओं से भी कहा जाना चाहिए कि बहुत हो गया अब जरा विश्राम लीजिए। विद्यामंदिरों को कम से कम अब बख्श दीजिए। इतिहास के नाम पर कलकत्ता विश्वविद्यालय की शान कबतक कायम रहेगी-यह कहा नहीं जा सकता। अगर आज की पीढ़ी में खामियां भर गई हैं तो अतीत की कहानी बताकर छाती चौड़ी करने का कोई मतलब नहीं है। कहा भी गया है-
किस तरह कुल की बड़ाई काम दे
जो किसी में हो बड़प्पन की कसर।