लोकसभा के चुनाव में अभी तकरीबन एक साल की देरी है। लेकिन प्रायः सभी दलों की ओर से अगले आम चुनाव की तैयारी शुरू कर दी गई है। इसके लिए तरह-तरह के समीकरणों को ध्यान मे रखकर सियासी गोटी बिछाई जा रही है और तय किया जा रहा है कि किसी भी सूरत में बाजी हाथ से जाने न पाए।
यह प्रयास गलत नहीं है। सियासत में हर दल या हर नेता की चाहत होती है कि वह देश का अगला प्रधानमंत्री बने। लेकिन उसके लिए विडंबना यही है कि संख्या बल को आधार बनाया गया है। जिसके पास जनमत हो, संविधान के मुताबिक उसी दल या दलों के गठबंधन को सरकार बनाने का अवसर हासिल होता है।
यह भी ज्ञातव्य है कि देश में सबसे अधिक समय तक कांग्रेस या उसके सहयोगियों के किसी गठबंधन का ही राज रहा है। जब एकदलीय लोकतंत्र से लोगों का भरोसा उठ गया तो बहुदलीय प्रणाली पर आधारित सरकारे बनने लगीं।
बहरहाल चुनावी सरगर्मी अभी से तेज हो गई है। एक ओर भाजपा अपने सहयोगी दलों के साथ एक बार फिर से नए समीकरण बनाने में जुटी है तो कांग्रेस ने भी अगले चुनाव के लिए कमर कसनी शुरू की है। इस बीच तीसरे मोर्चे की बात भी चल पड़ी है।
समझा जाता है कि गैर-भाजपा और गैर-कांग्रेस गठबंधन की एक तीसरी ताकत भी खड़ी होगी जिसमें तृणमूल कांग्रेस की अगुवा ममता बनर्जी के कंधों पर बड़ी जिम्मेदारी आने वाली है।
इस नए गठबंधन को फिलहाल जी-8 कहा जा सकता है क्योंकि इसमें ममता बनर्जी के अलावा झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन, बिहार के सीएम नीतीश कुमार, राजद के मुखिया तेजस्वी यादव, दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल, उत्तर प्रदेश के पूर्व सीएम अखिलेश यादव तथा चंद्रशेखर राव के अलावा वाईएसआर के मुखिया भी शामिल होंगे।
यह एक नया गठबंधन तेयार हो रहा है जिसे दोनों ही बड़े दलों से दूर रहकर पहले अपनी ताकत का अंदाजा करना है। ममता बनर्जी के अलावा नीतीश कुमार का भी मानना है कि अगर ठीक से मोर्चाबंदी कर दी गई तो भाजपा को 100 सीटों पर ही रोका जा सकता है।
माना यही जा रहा है कि यदि भाजपा को 100 सीटों तक सीमित रखा जाए तो तीसरे विकल्प को ही सरकार बनाने का मौका मिलेगा और बाकी अन्य दलों को भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए इसी गठबंधन का समर्थन करना होगा।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही खड़ा होगा कि तीसरे मोर्चे का नेता कौन होगा। इस गुट में सबसे कद्दावर नेता के तौर पर ममता बनर्जी का ही चेहरा दिखता है लेकिन नीतीश कुमार की महत्वाकांक्षा भी कम नहीं रही है। इसके अलावा भविष्य में मायावती को भी साथ लेने की जरूरत आन पड़ेगी।
अगर मायावती किसी सूरत में इस नए गठबंधन की हिस्सेदार बनती हैं तो उन्हें भी पीएम बनने की चाह जरूर होगी। बेहतर होता कि तीसरे मोर्चे के गठन से पहले ही यह तय कर लेना चाहिए कि इस नए गठबंधन का नेतृत्व किसके हाथ में होगा। अफसोस की बात यही है कि गठबंधन में हमेशा नेतृत्व को लेकर खींचतान की नौबत बनी रहती है।
खींचतान तभी रुकेगी जब सभी दलों में त्याग और समर्पण की भावना हो। यदि अगले आम चुनाव में पीएम प्रत्याशी के नाम पर पहले से ही मुहर लग जाती है तो जनता के सामने भी तसवीर साफ हो जाएगी और तीसरे मोर्चे को तब लोगों के बीच अपनी बात खुलकर रखने का मौका रहेगा। चुनावी तस्वीर अभी कौन-कौन से रंग बदलती है-यह देखना दिलचस्प होगा।
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