सदियों ने सजा पाई

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एक कहावत है कि लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई। सरकारी महकमे में जनता की भलाई के लिए तरह-तरह की परियोजनाएं लाई जाती हैं तथा समझा जाता है कि इनसे जनता का भला होगा। लेकिन वही परियोजनाएं अगर समय से लागू न हों या फिर किसी खास वजह से उन्हें लंबित रखा जाए तो उनका खर्च तो बढ़ता ही है, जनता भी नाउम्मीद होने लगती है। कुछ ऐसा ही हाल है महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले का। यहां एक बाँध के निर्माँण का सपना देखा गया था जिससे कि इलाके के लोगों को पानी की परेशानी से राहत दी जाए। सपना देखा गया सन 1970 में। तब के प्रशासन ने तय किया कि इसके निर्माण से अहमदनगर के अलावा नासिक जिले के लोगों की पानी की समस्या भी दूर हो जाएगी। लेकिन 1970 में देखा गया सपना लगभग 53 साल बाद पूरा हुआ है। जाहिर है कि इस दौरान कितने लोग पानी-पानी की रट लगाते हुए दुनिया से कूच कर गए होंगे। लेकिन इससे सरकारी मुलाजिमों को कोई फर्क नहीं पड़ा और इस परियोजना की लागत भी 8 करोड़ से बढ़कर 5177 करोड़ रुपये हो गई। पूछा जा सकता है कि इसका खर्च यहां तक बढ़ाने में किन लोगों का हाथ रहा है। क्या ऐसे अधिकारी या राजनेता इस खर्च को वहन कर सकेंगे। क्यों नहीं खर्च की बढ़ी हुई राशि का भुगतान इस दौरान अहमदनगर जिले के संबंधित विभाग में काम करने वाले लोगों की पगार से वसूला जाए। लेकिन इसका कोई प्रावधान ही नहीं है। प्रावधान नहीं होने के कारण या किसी एक को जिम्मेवार नहीं ठहराने के कारण ही देश की कई परियोजनाएं आज लंबित पड़ी हैं अथवा उनका व्यय भार पहले की अपेक्षा कई गुना ज्यादा हो चुका है। सरकार को इस बारे में फैसला लेना होगा।

75 साल हो गए भारत को आजाद हुए। किसी भी कौम की नींद खुलने के लिए इतना समय पर्याप्त है। फिर भी अगर भारत के नौकरशाहों या सरकारी मुलाजिमों की नींद नहीं खुली है तो इसकी वजह है राजनेताओं और नौकरशाहों की मिलीभगत से पैदा हुआ भ्रष्टाचार। अहमदनगर इकलौता नहीं है। यदि समीक्षा की जाए तो पूरे देश में ऐसे बहुत से अहमदनगर मिल जाएंगे जहां कभी कुआँ खोदने के लिए या तालाब निर्माण के लिए निविदा जारी की जाती है। निविदा किसी एक बोली लगाने वाले को दे दी जाती है। अगले ही साल वह परियोजना पूरी भी हो जाती है। सरकारी आंकड़े में तालाब और कुआं खुद जाते हैं। ठेकेदार को पैसे भी दे दिए जाते हैं लेकिन हकीकत कुछ और ही होता है। हकीकत यह है कि कुआं या तालाब केवल सरकारी फाइलों में खुदे होते हैं और आम नागरिक वैसे ही पानी के लिए तड़पता रह जाता है। भ्रष्टाचार का यह पुराना ढर्रा अब बदलना चाहिए। प्रशासन में मौजूद इस नासूर का समूल विनाश जरूरी है। अगर इसमें देर की गई तो भारत को विकसित देश कहलाने में सदियां भी गुजर सकती हैं। बेहतर यही है कि भारत सरकार किसी ऐसी राह का अनुसरण करे जिसमें सरकारी महकमे में काम करने वालों को भी कार्पोरेट घरानों की तरह ही लक्ष्य निर्धारित काम सौंपा जाए तथा उस काम को पूरा करने में हो रही देरी के एवज में उनसे ही जुर्माना वसूला जाए। केवल तभी बुलंद भारत की तस्वीर नजर आएगी, नहीं तो तिरपन साल तक इंतजार के बाद 8 करोड़ से 5177 करोड़ का व्यय भार उठाना होगा। ध्यान दे इस पर सरकार।