नदियों को चबाने वाले लोग

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देश जहां एक ओर हर महीने सियासी खींचतान की तस्वीर देखने का आदी हो गया है, लोग जीडीपी और महंगाई के आंकड़े तलाशने में मशगूल हैं-वहीं एक तबका ऐसा भी है जो लगातार कुदरत के साथ मजाक कर रहा है। मजाक नहीं, बल्कि कुदरत को हजम करने की कोशिश में जुटा है।

ऐसे में पर्यावरण पर नजर रखने वालों की राय है कि यूं ही इन्हें कुदरती संसाधनों को हजम करने की खुली छूट मिलती रही तो कल आबादी का नामोनिशान मिट सकता है। मिसाल के तौर पर उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी व चमोली वगैरह के अलावा उत्तरी बंगाल में हाल ही में हुए तिस्ता नदी के अचानक बहाव को भी शामिल किया जा सकता है।

अचानक नदियां अपनी राह छोड़कर बस्तियों में दाखिलल हो जाती हैं या फिर बादल फटने लगते हैं। इन घटनाओं का स्पष्ट कारण पर्यावरणविदों की राय में कुदरत से छेड़छाड़ है।

एक ओर जहां गंगा की राह रोक कर हाइड्रोपावर परियोजनाओं को अंजाम देने की होड़ लगी है, वहीं उत्तरी बंगाल के सिलीगुड़ी-जलपाईगुड़ी इलाके में नदी की राह रोककर उसकी जमीन को दखल किया जा रहा है।

बंगाल में एक नदी की तलहटी में मौजूद जमीन दखल करने की सनसनीखेज घटना का खुलासा खुद एक जनप्रतिनिधि ने की है। डाबग्राम-फुलबाड़ी की विधायक शिखा चट्टोपाध्याय का मानना है कि उनके इलाके में कुछ पूंजीपतियों ने सरकारी बाबुओं की मुट्ठी गरम करके स्थानीय नदी के आसपास की जमीन को दखल करना शुरू किया है।

जाहिर है कि ऐसी जमीनें दखल करने के पीछे व्यावसायिक जरूरतें शामिल हैं। पर्यटन उद्योग को बढ़ावा देने के लिए सस्ते में नदी की तलहटी या उसके किनारे की जमीन दखल करने की कथित होड़ मची है। लेकिन नदी की धार रोकने का असर क्या होता है इसका जीवंत नमूना हर साल बारिश के मौसम में मालदह और मुर्शिदाबाद की जनता देखती है।

यहां यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि उत्तर भारत से आने वाली तमाम नदियां किसी न किसी प्रकार से गंगा की सहयोगी ही हैं। ऐसे में अगर उनकी राह रोकी गई तो उसका खामियाजा गंगा के मैदानी इलाके में रहने वाली समूची आबादी को भुगतना पड़ता है। शिखा चट्टोपाध्याय की शिकायत पर संज्ञान लेते हुए प्रशासन को तुरंत सक्रिय होने की जरूरत आन पड़ी है।

ध्यान रहे कि अगर कुदरत के संसाधनों से छेड़खानी का यह दौर यूं ही चलता रहा और हम खामोश रहे, तो वह दिन दूर नहीं जब कुदरत हमसे चुन-चुन कर बदला लेने को आमादा हो जायेगी। फिर वही नजारा होगा जो दुनिया के कई अन्य देशों में देखने को मिल रहा है।

नदियां भारत की लाइफलाइन हैं। इनकी राह में रोड़े अटकाने वाले तत्वों को तुरंत कानून के शिकंजे में लेकर नदियों की धारा अविरल बहाने का संकल्प लेना होगा। और यह काम सरकारी महकमे की चुस्ती से ही संभव है।