उस अजीम फैसले को सलाम

107

भारतीय संविधान के रचनाकारों ने जो सपना देखा था, उसे किसी भी कीमत पर जिंदा रखने का जिम्मा हम सभी देशवासियों पर है। समय-समय पर जब कानून की अवहेलना होती है तो मन खिन्न जरूर हो जाता है लेकिन सत्ता के किसी न किसी अंग से कोई ऐसी शख्सियत उभरती है, जो संवैधानिक मूल्यों की वकालत करने लगती है। यही है भारतीय संविधान और हमारे लोकतंत्र की विशेषता।

इस प्रकरण में केरल हाईकोर्ट के एक फैसले को शामिल किया जा सकता है जिसमें न्यायाधीश ने लक्षद्वीप के एक सीजेएम को बाकायदा सजा सुनाई है और यह भी उल्लेख किया है कि किसी भी न्यायिक पीठ पर बैठा आदमी देश के कानून से ऊपर नहीं है।

अदालत के इस विचार से हर देशवासी को सुकून मिलता है। अपने देश में कुछ ऐसे भी मामले आते हैं जिनमें लगता है कि सत्ता का सुख भोगने वाले लोग कानून को ताक पर रखकर किसी के भी खिलाफ कानून का दुरुपयोग कराने में माहिर हैं।

कई मौकों पर अदालतों की ओर से ऐसे शासकों या सरकारी बाबुओं को फटकार भी मिलती है। फिर भी कुछ लोग हैं जो कानून से खेलने की कोशिश में लगे रहते हैं। ऐसे लोगों को केरल हाईकोर्ट ने एक सीख दी है।

लोकतंत्र में सभी नागरिकों को समानता का अधिकार हासिल है और इसके तहत ही अदालतों को भी अपने फैसले लेने पड़ते हैं। प्रसंगवश कहा जा सकता है कि ऐसे ही एक बार एक अदालत ने देश के पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के एक फैसले पर तल्ख टिप्पणी करने के बाद उनके फैसले को उलट दिया था।

तब संबंधित अदालत का कहना था कि राष्ट्रपति कोई नरेश नहीं हैं कि उनकी आज्ञा का पालन किया जाए। अदालत की टिप्पणी से कुछ लोगों को बुरा भी लगा होगा मगर साधुवाद देना चाहिए उस अदालत को जिसने राष्ट्रपति के फैसले को भी निरस्त करते हुए धारा 356 के प्रयोग को उलट दिया था। कुछ उसी राह पर केरल हाईकोर्ट ने भी कहा है कि कोई भी व्यक्ति, चाहे वह किसी भी पद पर हो, कानून से बड़ा नहीं है।

अदालत की इस सोच का सम्मान करते हुए अगर देश के राजनेता भी इसी भावना से काम करने को ठान लेते तो बहुतेरे विवाद खुद ही समाप्त हो जाते। संविधान की शपथ लेकर जो किसी मंत्री का पद सुशोभित करते हैं, उनसे इतनी अपेक्षा जरूर की जाती है कि वे भी कानून का पालन करें।

इसके साथ ही सरकारी पदों पर काम करने वाले लोगों या न्यायाधिकरण से जुड़े लोगों को भी इस घटना से सीख लेनी चाहिए। न्याय प्रक्रिया से जुड़े लोग खुद को सुपर इंसान मानने लगते हैं। उन्हें लगता है कि उनका कद कानून से बड़ा है।

अगर ऐसा नहीं समझा जाता तो लक्षद्वीप के सीजेएम ने किसी दूसरे को फंसाने के लिए फर्जी सबूतों को आधार नहीं बनाया होता। बहरहाल केरल हाईकोर्ट को इस बात के लिए भी साधुवाद दिया जाना चाहिए कि उसने जनता की उम्मीदों को जिंदा रखा है। ज्ञात रहे कि भारत में केवल अदालतें ही हैं (वह भी कम), जिनपर आम लोगों को भरोसा है। यह भरोसा कायम रहना चाहिए।

इसे भी पढ़ेः सत्यम ब्रूयात, प्रियम ब्रूयात