सत्यम ब्रूयात, प्रियम ब्रूयात

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अपने यहां एक कहावत है। इसमें कहा जाता है कि सच बोलो किंतु वही सच जिससे किसी का दिल नहीं दुखे। माना जाता है कि जिस सच से किसी को ठेस पहुंचे, उससे किनारा कर लेना ही बेहतर है।

सामाजिक जीवन में इन चीजों की काफी अहमियत है और शायद यही वजह है कि काने को काना कहने से घर के बुजुर्ग अपने बच्चों को मना करते हैं। लेकिन अपने देश में सामाजिकता से ऊपर एक वर्ग और भी है जिसकी अहमियत आजादी के बाद और बढ़ती चली गई है।

इसे कहा जाता है राजनीतिक जगत। इसमें देश के चुनिंदा राजनेताओं को शामिल किया गया है जिनकी बोली या भाषा को आम जन भी बड़ी गंभीरता से लेता है। शायद यही वजह है कि पुराने नेताओं तथा संविधान की रचना करने वालों ने वाणी पर संयम रखने की सलाह दी है।

कालांतर में यह परिपाटी नष्ट होने लगी है और आजकल राजनेताओं की भाषा फुटपाथ से भी गई गुजरी हो चली है। इसी संदर्भ में हाल ही में संसद में हुए कुत्ता प्रकरण को शामिल किया जा सकता है।

एक पक्ष का आरोप है कि आज जो लोग दिल्ली की केंद्रीय सत्ता का सुख भोग रहे हैं, उनके पुरखों के घर का कोई कुत्ता भी देश के स्वाधीनता आंदोलन से नहीं जुड़ा था। इसके जवाब में दूसरा पक्ष कुछ ऐसे बोल जाता है जिसे जुबान पर नहीं लाया जा सकता।

पहले तो यह तय किया जाना चाहिए कि संसद में किन बातों पर चर्चा की जानी चाहिए। देश की संसद आम लोगों की सुख-सुविधाओं पर बहस करने के लिए बनी है। संसद के किसी भी सत्र को चलाने के लिए जिस धन की जरूरत होती है, वह आम लोगों की गाढ़ी कमाई का हिस्सा हुआ करता है।

ऐसे में जनता के पैसों पर जो बहस आयोजित हो, उसमें जनहित पर चर्चा होनी चाहिए लेकिन दुर्भाग्य से राजनेता किसी न किसी बहाने संसद पटल को अपनी पार्टी के विज्ञापन का मंच बना दिया करते हैं। इसके अलावा जिस भाषा का प्रयोग किया गया, उससे भी परहेज करने की जरूरत है।

देश आज दुनिया की दौड़ में आगे निकलने लगा है। उसे अब किसी दकियानूसी ख्याल से बांधकर नहीं रखा जा सकता। जरूरत है कि राजनेताओं को भी उसी अंदाज में अपने थिंक टैंक को विकसित कर लेना चाहिए।

इसी संदर्भ में यह भी कहा जा सकता है कि देश की स्वाधीनता के संग्राम में आज के किसी खास दल को अकेले भागीदारी का तमगा नहीं मिले। आजादी के आंदोलन में गांधीजी के नेतृत्व में जिस कांग्रेस नामक संगठन को आगे बढ़कर लड़ते देखा गया था, उसमें किसी एक दल या विचार के लोग नहीं थे।

उनकी मंशा एक थी- आजादी। लेकिन मतभेद उनमें भी थे, जो आजादी के बाद उभरने लगे थे और आजादी हासिल करने के बाद उस कांग्रेस नामक संगठन से कई लोग अलग होकर अपने विचारों के आधार पर नए-नए राजनीतिक संगठन बनाने लगे।

ऐसे में आजादी की लड़ाई में शामिल रही कांग्रेस के साथ जिन्होंने कंधे से कंधा मिलाया, उनके अवदानों को अगर आज झुठलाया जाय- तो शायद यह ठीक नहीं होगा। मौजूदा कांग्रेस के ज्यादातर लोगों के पूर्वजों ने आजादी की लड़ाई लड़ी, यह सही है। मगर किसी दूसरे दल में जा चुके तब के स्वाधीनता सेनानियों के अवदान को नकार देना भी उचित नहीं है।

बेहतर यही है कि मौजूदा हालत में हर दल अपनी नीतियों की समीक्षा करे, जनहित में काम करे और संयमित भाषा का प्रयोग करे। अखरने वाले सच से दूर रहने की जरूरत है।

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