कोलकाता, अंकित कुमार सिन्हा
”उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है
जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है”
देश की राजनीतिक फिजा इस नज्म को कहीं ना कहीं चरितार्थ कर रही है। दरअसल, देश में अगले साल आम चुनाव हैं। ज्यादा वक्त बचा नहीं है इसलिए अभी से राजनीतिक दलों का शह और मात का खेल शुरू हो गया है। केंद्र में विराजमान बीजेपी(एनडीए) अपने नेतृत्व, संगठन और जबरदस्त प्रचार तंत्र के भरोसे 400 से ज्यादा सीट लाने का दावा कर रही है। दूसरी तरफ है कांग्रेस, जिसे अपने वजूद को कायम रखने के लिए राजनीतिक रूप से ऑक्सीजन की जरूरत रही है, जो शायद कांग्रेस को मिल गया। राहुल गांधी को लोकसभा से निष्कासन के साथ। तीसरी तरफ हैं क्षेत्रीय क्षत्रप, जो कई दशकों से सभी चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते आए हैं।
इन क्षत्रपों की ओर से हर बार चुनाव से पहले तीसरे मोर्चे की बात आती है, कवायद भी होता है मगर नतीजे निराश करते रहे हैं। लोग भी इन कथित मोर्चों की मोर्चाबंदी से ऊबने लगे हैं। शायद इसीलिए इस बार तीसरे मोर्चे की चर्चा से पार्टियां बच रही हैं।
वैसे अगर तीसरी सियासी ताकत या गठबंधन की बात आई तो सूत्रधार के रूप में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सबसे आगे नजर आ रही हैं। पिछले दिनों ममता तीन दलों के प्रमुख नेताओं से मुलाकात कर चुकी हैं, जिनमें अखिलेश यादव, नवीन पटनायक और एच.डी. कुमारस्वामी।
क्या है फारमूला
ममता और अखिलेश की मुलाकात के बाद कहा गया कि हम साथ चलेंगे मगर कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) दोनों से बराबर दूरी बनाकर रखेंगे। नवीन-ममता मुलाकात में भी संघीय ढांचे को मजबूत करने की बात कही गई। कुमारस्वामी के आने का संकेत भी वही रहा। लेकिन राहुल गांधी प्रकरण ने नया पेंच जरूर ला दिया है। अखिलेश ने कांग्रेस का आह्वान करते हुए कहा अब कांग्रेस क्षेत्रीय दलों को आगे करे, जिससे बीजेपी का मुकाबला किया जा सके। जाहिर है कि यह सीख कांग्रेस को हजम नहीं होगी और वह अपनी छतरी के नीचे ही सभी दलों को लाने की कोशिश करेगी। ऐसे में ममता और शरद पवार की संभावित मुलाकात ही आगे की घटनाओं या संभावनाओं पर रोशनी डाल पाएगी।
कयास
बहरहाल क्षेत्रीय दलों की ताकत को कम करके आंकने की किसी भी राष्ट्रीय दल में हिम्मत नहीं है लेकिन यह भी सही है कि नेता के चुनाव पर क्षेत्रीय दलों में कहीं भी एकता नहीं। नेता चयन का मुद्दा क्षेत्रीय दलों का सिरदर्द बनेगा लेकिन कांग्रेस-भाजपा को इससे नहीं जूझना है। सिफर से शिखर का सफर अभी मुश्किल लगता है।