राजधर्म की सीख

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आजकल की सियासत में एक शब्द बड़ा प्रचलित हो गया है- राजधर्म। इस शब्द का प्रयोग काफी पुराना है। पौराणिक युग में भी इसका काफी प्रचलन था। राजा शिवि की कहानी राजधर्म की गाथा है। मर्यादा पुरुषोत्तम के पुरखों में राजा दिलीप की गो-भक्ति की कहानी भी उसी राजधर्म की याद दिलाती है जिसमें एक गाय की रक्षा के लिए महाराज दिलीप ने खुद को शेर के सामने परोस दिया था। बाद में उसी राजधर्म के तहत अयोध्या में श्रीराम की चरण पादुका को सिंहासन पर रखकर भरत ने चौदह साल तक शासन किया। किसी एक साधारण नागरिक के ओछे उलाहने के कारण श्रीराम ने अपनी पत्नी सीता का परित्याग कर दिया था-उसे भी राजधर्म ही कहा जाता है। और अपने ही परिवार की कुलवधू की इज्जत तार-तार होते देख खामोश रहने वाले भीष्म की कहानी भी राजधर्म का ही बखान करती है। इतिहास चाहे जितनी गालिय़ां दे, जिसे जिस काल-खंड में जो उचित लगा-उसने वह काम पूरी निष्ठा से किया।

इसी प्रसंग में मशहूर साहित्य़कार विलियम शेक्सपियर के एक सॉनेट का उल्लेख किया जा सकता है जिसमें उन्होंने दया की गुणवत्ता पर लिखा है कि इट इज माइटिएस्ट इन दि माइटिएस्ट अर्थात यह जितने ताकतवर इंसान के पास पहुंचे, इसकी ताकत भी उतनी ही बढ़ जाया करती है। शायद इसीलिए सत्ता का लाभ लेने वाले लोगों को राजधर्म की सीख दी जाती है। यहां तक कि जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और गोधरा के दंगे हो रहे थे, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी उन्हें इसी राजधर्म के पालन का उपदेश दिया था। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि इस शब्द के असली मतलब को समझ कर ही किसी भी शासक को अपना काम करना चाहिए और इतिहास ऐसे ही लोगों को याद रखता है जिन्होंने हर हाल में राजधर्म निभाने का प्रयास किया हो।

ताजा घटना में पश्चिम बंगाल के चुनाव आयुक्त राजीव (राजीवा) सिन्हा को राज्यपाल सी वी आनंद बोस ने भी राजधर्म के पालन की सीख दी है। राजभवन का मानना है कि चुनाव आयोग को जिस बात की निगहबानी करनी चाहिए थी, उस पर राज्यपाल को नजरदारी करनी पड़ रही है। आशय यह है कि पंचायत चुनाव का बिगुल बजते ही राज्य में हिंसा का दानव मुंह बाए खड़ा हो गया है। रोज किसी न किसी प्रकार की घटना सामने आ रही है। लेकिन चुनाव आयोग की ओर से यही कहा जा रहा है कि कहीं कोई गड़बड़ी नहीं हो रही। ज्ञातव्य है कि राजभवन ने हिंसा की घटनाओं की जानकारी के लिए एक समानांतर व्यवस्था की है जिसके तहत सीधे लोगों को राजभवन से जोड़ने की कोशिश की जा रही है। लोगों के फोन भी राजभवन तक पहुंच रहे हैं तथा राज्यपाल ऐसे पीड़ित लोगों से फोन पर बात भी कर रहे हैं। यह काम राज्यपाल का नहीं है-ऐसा खुद शासक दल की ओर से कहा जा रहा है। यह सही भी है। लेकिन लोकतंत्र में सरकार केवल प्रशासन के लिए नहीं, बल्कि जनता के लिए हुआ करती है। जहां राज्य की जनता भय और आतंक के बीच जी रही है, रोजाना खून की होली खेली जा रही है, पुलिस अपना काम तक नहीं कर पा रही है, मृतकों की पहचान उनके कफन के रंग के आधार पर तय की जा रही है-वहां जनहित में राजभवन का आगे आना राजधर्म ही कहा जाएगा। मरने वालों की पहचान राज्य के नागरिक के तौर पर होनी चाहिए किसी दल के नाम पर नहीं। दुर्भाग्य है इस राज्य में वामपंथी सरकार ने मुर्दों के भी कभी सियासी रंग तय कर दिए थे और वह सिलसिला आज भी प्रशासन में बैठे कुछ लोग चलाए जा रहे हैं। इसे अब बंद करना चाहिए। बदलाव का नारा देने वाली मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस दिशा में ठोस काम करेंगी-यही अपेक्षा रहेगी।