हो भाषा का वह मंदिर जहां पढ़ते थे 1500 हो भाषा के विद्यार्थी

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चाईबासा : टोंटो प्रखंड के बड़ा झींकपानी में स्थापित हो भाषा (वारंग क्षिति) शिक्षण प्रशिक्षण एवं अनुसंधान केन्द्र का इतिहास जितना स्वर्णिम है, उतना ही गौरवशाली भी है। लेकिन हो भाषा के विकास में मील का पत्थर माना जानेवाला यह केंद्र सिर्फ 13 साल के छोटे से स्वर्णिम सफर के बाद ही राजनीतिक गुटबाजी का शिकार हो गया और हमेशा के लिए बंद हो गया। हो भाषा व उसकी लिपि के संवर्धन व विकास के लिए निर्मित इस केंद्र में किसी समय करीब 1500 विद्यार्थी अपनी मातृभाषा (हो भाषा) व अपनी लिपि वारंग क्षिति का अध्ययन करते थे। इस केंद्र के बगल में ही 6 कमरों का हॉस्टल भी मौजूद था जिसमें दूर-दराज गावों के विद्यार्थी रहा करते थे। इनमें पश्चिमी सिंहभूम के अलावा सरायकेला-खरसावां व पूर्वी सिंहभूम के हो विद्यार्थी भी शामिल थे। उस समय कोल्हान में हो भाषा व उसकी लिपि पढ़ाने वाली हो आदिवासियों की यह एकमात्र संस्था थी जो करीब डेढ़ दशक तक हो भाषा की पढ़ाई का केंद्र रही। इस केंद्र में मुख्य रूप से हो भाषा टीचर ट्रेनिंग के अलावा हो भाषा व व्याकरण, भाषा साहित्य आदि के बारे में पढ़ाया जाता था। फीस प्रतिमाह महज सौ रूपए था। एक विद्यार्थी को सप्ताह में सिर्फ तीन से चार दिन पढ़ाया जाता था।

 

शिक्षा प्रेमियों की इच्छाशक्ति व जिद से बना था यह केंद्र

वारंग क्षिति लिपि के विकास व शिक्षण प्रशिक्षण के उद्देश्य से इस केंद्र की स्थापना 1992 में हो समाज के कुछ हो भाषा प्रेमियों ने की थी। इनमें वारंग क्षिति लिपि के विकास में अपना संपूर्ण जीवन खपानेवाले हो भाषा प्रेमी चरण हांसदा, मोरा देवगम, चुंबरू बलमुचू, अजीत गोप, बुधन सिंह हांसदा, बड़ा झींकपानी के तत्कालीन ग्रामीण मुंडा, डोबरो बुड़ीउली, मोहन सिंह सुंडी, सुभद्रा सुंडी आदि का नाम शामिल हैं। इन्हीं लोगों की इच्छाशक्ति व जिद की वजह से यह प्रशिक्षण केंद्र अस्तित्व में आया था। इन लोगों ने लिपि के विकास के लिए यह संस्था बनायी थी। चूंकि इन लोगों के पास कोई अपना भवन नहीं था। इसलिए इन्होंने एसएस हाईस्कूल बड़ा झींकपानी के भवन में शुरूआत में पढ़ाना शुरू किया था। सन 1995 में तत्कालीन उपायुक्त अमित खरे ने बड़ा झींकपानी (टोंटो) में इस केंद्र के लिए कई कमरों का एक भवन का शिलान्यास किया। 1997 में यह बनकर तैयार हुआ। बगल में ही हॉस्टल भी बना। फिर इस केंद्र को उस स्कूल से हटाकर इस नये भवन में शिफ्ट किया गया। इस भवन का डिजाइन चाईबासा की आसरा संस्था ने तैयार की थी और धरातल पर साकार किया था। जबकि इस इसके लिए बड़ा झींकपानी रामसाई निवासी समाजसेवी बुधन सिंह हांसदा ने अपनी ढाई एकड़ पैतृक जमीन दान की थी।

 

187 विद्यार्थियों ने जेपीएससी की थी पास

इस प्रशिक्षण केंद्र की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि 2003 में जेपीएससी ने हो भाषा के शिक्षकों की बहाली के लिए चयन परीक्षा आयोजित की दी। इस केंद्र से निकले 187 विद्यार्थियों ने आश्चर्यजनक ढंग से यह परीक्षा पास की थी। तब अचानक से यह संस्था चर्चा के केंद्र में आ गया था। परीक्षा पास करनेवालों को सिर्फ नौकरी ज्वाइन करना बाकी था। इसी बीच यह कहते हुए राज्य सरकार ने उनकी नियुक्ति रद्द कर दी कि उन्होंने जिस संस्था से टीचर की ट्रेनिंग ली है वह राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद (National Council for Teacher Education) से मान्यता प्राप्त नहीं है। जबकि टीचर ट्रेनिंग देनेवाली संस्थाओं के पास NCTE की मान्यता ज़रूरी है। वरना वह अवैध है। इस तरह से सरकार ने इसे गैर मान्यता प्राप्त घोषित कर दिया। अभ्यर्थी सरकार के इस फैसले के खिलाफ सड़क पर भी उतरे थे। लेकिन सरकार ने उनकी नहीं सुनी थी।

 

राजनीतिक गुटबाजी का शिकार हुआ केंद्र

झारखंड अलग होने के बाद इस संस्था में राजनीति ने भी अपने पांव पसार लिये। धीरे-धीरे संस्था का राजनीतिकरण बढ़ा। नतीजा राजनीतिक गुटबाजी होने लगी। केंद्र चलाने के लिए बनी संचालन समिति में भी राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ने लगा। नतीजा 2005 में यह संस्था पूरी तरह राजनीतिक गुटबाजी का शिकार हो गया और वारंग क्षिति लिपि सिखाने वाली एकमात्र संस्था हमेशा के लिए बंद हो गई। रही-सही कसर राज्य सरकार की उस घोषणा ने पूरी कर दी जिसमें इस प्रशिक्षण केंद्र को ही गैर मान्यता प्राप्त करार दे दिया गया। सरकार की यह घोषणा इस प्रशिक्षण केंद्र की ताबूत में आखरी कील साबित हुई। बहरहाल, मुख्य सड़क के किनारे निर्मित इस प्रशिक्षण केंद्र का यह जर्जर भवन आज भी हमें वारंग क्षिति लिपि शिक्षण संस्थान का स्वर्णिम इतिहास की याद दिलाता है।

 

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