संभाषण की आजादी का सच

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भारतीय संविधान ने हर नागरिक को बोलने की आजादी दी है। सभी लोग अपने विचार व्यक्त करने को स्वाधीन हैं। लेकिन संविधान में मिली छूट का मतलब यह नहीं कि हम किसी के विचारों की धज्जियां उड़ाते रहें या अपने सामने किसी को बोलने ही नहीं दें अथवा विरोध के स्वर को स्थान ही नहीं दें।

यही बात सुप्रीम कोर्ट को भी अखर रही है। दरअसल देश की शीर्ष अदालत एक ऐसे मुकदमे की सुनवाई कर रही है जिसमें कहा गया है कि टीवी चैनलों के एंकर या खबरें पेश करने वाले लोग निजी एजेंडा के तहत पैनल में शामिल लोगों के बयान पेश करते हैं।

मतलब यह कि पैनल में शामिल व्यक्ति यदि चैनल या एंकर के मन के मुताबिक हुआ तो उसकी बात परोसी जाती है लेकिन अगर वह व्यक्ति चैनल की सोच से कुछ अलग सोच रखता है तो उसकी बात को बीच में ही काट दिया जाता है।

अदालत का मानना है कि यह संविधान में दिए गए अधिकारों का हनन है। इसके साथ ही अदालत ने एक और सवाल रखा है। सवाल है कि अगर कोई नफरत फैला रहा है तो क्या उसकी नकेल कसने की कोई तरकीब है।

अगर नहीं है तो अबतक ऐसा क्यों नहीं किया गया और अगर है तो फिर जो टीवी एंकर अपनी मर्जी के लोगों की बात सुनाकर दूसरे पक्ष की बोली पर लगाम कसते हैं, उन्हें तुरंत ऑफ एयर क्यों नहीं किया जाता।

मामला पेचीदा है। आजकल आम तौर पर टेलीविजन चैनलों में यह देखा जाता है कि प्राइम टाइम में किसी न किसी मसले पर कुछ लोग बाकायदा नेताओं या विशेषज्ञों का एक पैनल बिठा देते हैं।

पैनल में शामिल कुछ लोगों के जवाब काफी उत्तेजक होते हैं लेकिन किसी ने अगर उनके जवाब पर पलटवार करना चाहा तो तुरंत उसे खामोश करा दिया जाता है अथवा एक खास एजेंडे के तहत कैमरे का फोकस किसी दूसरे वक्ता की ओर कर दिया जाता है। यह सचमुच विकट स्थिति है।

लोकतंत्र में अगर सवाल किए जाते हैं तो उससे संबंधित लोगों को जवाब देने का भी हक होना चाहिए। आमतौर पर देखा जाता है कि एंकरिंग करने वाले लोग खुद को स्वयंभू मान लेते हैं और किसी पर भी बगैर किसी सबूत के कुछ भी टिप्पणी कर बैठते हैं। ऐसे लोगों की जुबान पर नियंत्रण रखने के लिए ही शायद अदालत ने कोई प्रणाली विकसित करने का सुझाव दिया है।

ऐसे में जाहिर है कि टेलीविजन चैनल्स को भी थोड़ी परेशानी होगी क्योंकि इस आशय की अदालत में हुई बहस से ही पता चलता है कि मीडिय़ा का एक वर्ग कहीं न कहीं जनता का प्रतिनिधि बनने की जगह कुछ लोगों का प्रतिनिधि बनकर काम कर रहा है।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश को अगर बारीकी से समझा जाय तो यही लगता है कि टीवी चैनलों की निजी दुकानदारी बंद करने की जरूरत आन पड़ी है। अदालत ने साफ कर दिया है कि पत्रकारिता के मानदंडों के आधार पर ही टीवी चैनलों को भी चलना चाहिए तथा संभाषण के अधिकार का सम्मान किया जाना चाहिए।

जरूरत है कि अदालत की सोच के साथ सकारात्मक पहल की जाए तथा बोलने के अधिकार का सदुपयोग करते हुए दर्शकों तक सबकी बात परोसी जाए। फैसला दर्शकों को करने दिया जाए किसी एंकर को निष्कर्ष निकालने से दूर रखें।

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