गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने जब शांतिनिकेतन की स्थापना की थी तो शायद उनके जेहन में दूर-दूर तक यह बात नहीं आई होगी कि एक दिन शांतिनिकेतन में भी अशांति अपनी जगह बना लेगी। आज की हालत देखकर किसी भी शिक्षा प्रेमी को क्षोभ हो सकता है क्योंकि कविगुरु के सपने यहां चूर-चूर हो रहे हैं। विश्व प्रसिद्ध यह प्रतिष्ठान दो विद्वानों की खींचतान में उलझा हुआ है और उलझन की वजह बनी है 13 डेसिमल जमीन।
महज इतनी सी जमीन के मुद्दे ने देश-विदेश तक इस विश्वविद्यालय के नाम को चर्चा में ला दिया है। और चर्चा इसलिए भी अधिक हो रही है क्योंकि इस जमीन के टुकड़े पर जिसका अवैध अधिकार बताया जा रहा है, वह कोई और नहीं बल्कि अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार हासिल कर चुके भारतीय विद्वान अमर्त्य सेन हैं। अमर्त्य पर आरोप है कि उनके पुरखों ने शांतिनिकेतन के परिसर में जो जमीन लीज पर ली थी, उस 1.25 एकड़ जमीन के टुकड़े की लीज के अलावा उन्होंने 13 डेसिमल जमीन अवैध रूप से दखल कर रखी है।
इसके लिये बार-बार कानूनी नोटिस दी जाती रही है और अंतिम नोटिस में यहां तक कह दिया गया है कि अब अगर पंद्रह दिनों में अवैध कब्जे को हटाय़ा नहीं गया तो जबरन उस जमीन को खाली करा लिया जाएगा। इस प्रसंग में यह उल्लेखनीय है कि शांतिनिकेतन (विश्वभारती विश्वविद्यालय) केंद्र सरकार के अधीन चलता है जिसके कुलाधिपति स्वयं भारत के प्रधानमंत्री हुआ करते हैं। जाहिर है कि केंद्र सरकार द्वारा संचालित इस विश्वविद्यालय को राज्य की राजनीति से जोड़ा गया है तथा यहां भी केंद्र और राज्य की सियासत की बानगी देखी जा रही है। यही वजह है कि राज्य सरकार के ज्यादातर लोग मानते हैं कि केंद्र की एनडीए सरकार से मनमुटाव के बाद से ही अमर्त्य सेन को निशाना बनाने की कोशिश हो रही है और इसी नीति के तहत उन्हें जमीन के मुद्दे से जोड़कर बदनाम किया जा रहा है।
हो सकता है कि इसमें सच्चाई भी हो। लेकिन अमर्त्य सेन के कद के आदमी के लिए इतने छोटे जमीन के टुकड़े के लिए रोजाना अपनी किरकिरी कराना भी अशोभनीय है। राज्य सरकार लगातार डॉ. सेन का पक्ष ले रही है जिसमें राज्य की ओर से कहा जा रहा है कि डॉ. सेन के पुरखों को जो जमीन लीज पर दी गई थी, उसके कागजात सरकार के पास सुरक्षित रहे हैं।
राज्य सरकार ने जमीन विवाद को जबरन उलझाने का विश्वभारती प्रबंधन पर आरोप लगाया है। समझा जाता है कि केंद्र के ही उकसावे पर विश्वभारती की ओर से अमर्त्य सेन को परेशान किया जा रहा है। इसी प्रसंग में स्मरण रखने की जरूरत है कि डॉ. सेन को पहले भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेताओं ने अपने साथ लेने की कोशिश की थी तथा एनडीए सरकार ने उन्हें नालंदा विश्वविद्यालय का दायित्व देकर फिर से नालंदा को अपने पुराने दिनों की ओर लौटाने का बीड़ा सौंप दिया था।
मगर शायद डॉ. सेन को लगा कि एनडीए की सरकार नालंदा को पुनर्जीवित करने की आड़ में शिक्षा का गैरिकीकरण करने जा रही है। यही वह मोड़ था जहां से अमर्त्य सेन की राह केंद्र सरकार से अलग हुई और बाद में केंद्र सरकार के कई नुमाइंदों तथा खासकर भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष दिलीप घोष ने भी डॉ. सेन के विरुद्ध कई अपमानजनक टिप्पणियां की हैं। लेकिन विश्वभारती प्रबंधन की ओर से उसके कुलपति का अमर्त्य सेन को बार-बार जमीन खाली करने का नोटिस देना अपमानजनक है। हो सके तो इसका निपटारा बातचीत से किया जाए। इस विवाद से गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के सपनों को आघात पहुंचेगा- दोनों पक्ष इतना ध्यान जरूर रखें।