ठहरिए, जरा सोच लीजिए

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भारतवर्ष की प्राकृतिक संपदा तथा इसकी ग्लोबल पोजिशनिंग को लेकर ज्यादातर देश भारत पर रश्क करते हैं। उनका मानना है कि भारत दक्षिणी गोलार्द्ध में ऐसी जगह पर स्थित है जहां की जलवायु नातिशीतोष्ण या समशीतोष्ण है। मतलब यह कि यहां हर मौसम का लुत्फ उठाया जा सकता है। और शायद यही वजह है कि दुनिया भर के पर्यटक भारत घूमने की लालसा लेकर यहां पधारते हैं, यहां की प्राकृतिक छटा का आनंद उठाते हैं। लेकिन हाल के कुछ सालों में पूरी बात बिगड़ने लगी है। भारत की मनोहारी छटा और लुभावना मौसम अब जानलेवा बनने लगा है। आबोहवा का इस तरह बदल जाना या मुंह फेरना घातक संकेत है। इंसान को इस धरती पर जीने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है कि प्राणियों के साथ ही उद्भिजों को भी समान रूप से पनपने और विकसित होने का मौका दिया जाए। लेकिन बढ़ती जनसंख्या का दबाव और आर्थिक जरूरतों के कारण इंसान लगातार प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करता जा रहा है। नतीजा यह है कि प्रकृति लगातार कुपित होती जा रही है।

कहीं नदियों की धारा मोड़कर कथित विकास किया जा रहा है तो कहीं वनों को काटकर इंसानी बस्तियां बसाई जा रही हैं। प्रकृति वैज्ञानिकों का कहना है कि ईको सिस्टम या पारिस्थितिकी से मजाक करना ज्यादा खतरनाक हो सकता है। लेकिन उनकी चेतावनी का किसी पर असर नहीं हो रहा। सरकार अपनी राह चलती जाती है और आम अवाम अपनी सुविधा के अनुसार प्रकृति के दोहन में शामिल है।  नतीजतन जहां थार का मरुस्थल है वहां बाढ़ जैसे हालात पैदा हो रहे हैं और गंगा के मैदानी इलाके में लोग बूंद-बूंद पानी को तरस रहे हैं। धरती का सीना सूख चुका है। तापमान लगातार छलांग मार रहा है। उत्तरी भारत तथा पूर्वांचल के ज्यादातर इलाकों में इस आषाढ़ महीने में तापमान 46-47 डिग्री सेल्सियस के आसपास है। गरमी की मार झेल रही अवाम तिल-तिल कर मर रही है। पहाड़ी इलाकों में लगातार भूधंसान की होने की खबर मिलती है तो बर्फीली चोटिय़ों पर हिमस्खलन से लोग परेशान हैं। पूछा जा सकता है कि आखिर हो क्या गया है इस कुदरत को।

जानकारों की दलील है कि कुदरत ने अपना विकराल रूप लेना शुरू किया है क्योंकि शायद इंसान उसके संकेतों को समझने की कोशिश नहीं कर रहा। या फिर यह भी हो सकता है कि समझकर भी नासमझी का खेल खेल रहा है। स्मरण रहे कि किसी जमाने में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा था-

संपूर्ण देशों से अलग, किस देश का उत्कर्ष है

उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन? भारतवर्ष है।

आशय यह है कि महज कुछ दशकों तक जिस देश के उत्कर्ष की गाथा सुनाई जा रही थी, आज वहां के लोगों को कुदरत जीने तक की इजाजत नहीं दे रही। आखिर इसके लिए दोषी कौन है। केवल सरकार को इसका दोष नहीं दिया जा सकता। दोषारोप करने से पहले हर नागरिक को अपनी करतूत पर ध्यान देना होगा। अगर कथित स्वर्गारोहण के पथ में खड़ा जोशीमठ अपने वजूद पर रो रहा है, टिहरी में सरकारी बंधन में फंसी गंगा आजाद होने के लिए छटपटा रही है, देश की वन संपदा अपनी हरियाली छिन जाने के आतंक से सूखने लगी है, वन्य जीवों को मारकर इंसान अपनी भौतिक जरूरतों को पूरा करने में मशगूल है- तो जाहिर है कि इसका खामियाजा भी भुगतना होगा। आज फैसला जरूरी है कि हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए कैसी प्रकृति छोड़कर जाने वाले हें। अगर आज की हवा दमघोंटू है तो कल कैसा होगा-इस पर विचार करना हर नागरिक का धर्म है। जरा सोचें।