कौन करे कानून की सुरक्षा

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अपराधी या अभियुक्त को सजा देने का काम अदालतें किया करती हैं। देश की आजादी के बाद से लगातार अदालतों ने कुछ ऐसे ऐतिहासिक फैसले दिए हैं जिनकी गाथा आज भी चाव से सुनी-सुनाई जाती है। अतीत में कुछ ऐसे भी जज होते रहे हैं जिन्होंने किसी के भी किसी सामाजिक ओहदे की परवाह किए बगैर कानून का साथ दिया। वर्तमान व्यवस्था में भी ऐसे जजों की कमी नहीं है जिन्हें इंसाफ के मंदिर में भगवान जैसा आसन दिया जाता है। लेकिन इन इंसाफ के मंदिरों अर्थात अदालतों में इंसाफ कर रहे लोगों की सुरक्षा कितनी मुकम्मल है, इसकी जानकारी बहुत कम लोगों को ही होती है। अदालत परिसर के एक कोने में वकीलों की जगह हुआ करती है जिसका नियंत्रण बार लाइब्रेरी तथा बार काउंसिल के अधीन होता है। उस  परिसर में दाखिल होने से पहले पुलिस को भी इजाजत लेनी पड़ती है। लेकिन अगर वकीलों के लबादे में आततायी ही कोर्ट में दाखिल हो जाएं तथा किसी की हत्या कर दें तो इसे क्या कहा जाएगा। यह ऐसी अराजकता है जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती। यह अदालत के साथ ही उस संबंधित राज्य की कानून व्यवस्था के गाल पर भी तमाचा है, जहां ऐसी वारदातें होती हैं। पिछले दो साल में दिल्ली तथा लखनऊ की अदालत में एक ही तरीके से की गई फायरिंग से पता चलता है कि अदालती परिसर असामाजिक तत्वों की घुसपैठ किस हद तक हो चली है।

इसे हर हाल में बंद किया जाना चाहिए। लेकिन इसे बंद करने के लिए अदालतों में काम करने वाले कर्मचारियों के साथ ही वकीलों तथा पुलिस को भी समझदारी से काम करना होगा। ज्ञात रहे कि बढ़ती आपराधिक गतिविधियों पर रोकथाम के लिए कई संवेदनशील जगहों पर सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं। अदालत परिसर में दाखिल होने वालों को मेटल डिटेक्टरों से होकर गुजरना पड़ता है। इसके बावजूद अगर किसी की अदालत परिसर में जान ले ली जाती है तो इसे कानून का ही मजाक कहा जाएगा। ध्यान रहे कि दो साल पहले दिल्ली की एक अदालत में हुई फायरिंग में जितेंदर मान उर्फ गोगी की कुछ बदमाशों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। और ताजा घटना में लखनऊ की जिला व सत्र अदालत में संजीव माहेश्वरी उर्फ जीवा की गोली मारकर हत्या हुई है। दिल्ली की घटना में भी आततायी वकीलों के लिबास में ही दाखिल हुए थे और लखनऊ में भी अपनी असली पहचान छिपाने के लिए हत्यारों ने वकील का ही लिबास धारण किया था। जाहिर है कि वकीलों की आड़ में ही इस तरह की घटनाओं को अंजाम दिया जाता है। ऐसे में बेहद जरूरी है कि बार एसोसिएशन को काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए। इस बात का ध्यान रखा जाना जरूरी है कि अगर इंसाफ के मंदिरों में ही लोग महफूज नहीं रहेंगे तो भला आम लोग किस भरोसे अदालत की शरण में जाएंगे। यह सही है कि जिनकी भी अदालतों में हत्या हुई है वे आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग रहे हैं लेकिन किसी को भी दंड देना अदालत के अधिकार क्षेत्र में होता है। किसी भी सूरत में कानून से किसी को खेलने की इजाजत नहीं दी जा सकती। बेहतर है कि अदालतों की सुरक्षा को और मजबूत किया जाए।