गाली और ताली का खेल

कांग्रेस को सरकार बनाने का स्पष्ट जनादेश मिला है

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कर्नाटक विधानसभा के चुनावी नतीजे आ चुके हैं जिनमें कांग्रेस को सरकार बनाने का स्पष्ट जनादेश मिला है। लंबी मशक्कत के बाद कांग्रेस को जीत का मौका मिला है और वह भी अपने दम पर। जीत तो मिली लेकिन चुनावी सीजन में जिस तरह की कड़वाहट देखी गई उससे निकल पाने में काफी समय लग सकता है। देश को इस बात का पता चल गया कि लोगों ने मोदी के जादू से अलग भी सोचना शुरू कर दिया है।
कर्नाटक के चुनावी नतीजे इस बात का संकेत दे रहे हैं कि एनडीए शिविर में जिस तरह की राजनीति हो रही है या देश को जिस तरह के सपने दिखाए जा रहे हैं, उसे जनता हजम नहीं कर पा रही है। हो सकता है कि भाजपा इस पराजय का ठीकरा किसी और पर फोड़े या किसी दूसरे मसले को खड़ा करे मगर ईमानदारी की बात यह है कि जीत का सेहरा जिस तरह पीएम के सिर पर बंधता रहा है, हार का ठीकरा भी उन्हीं पर फोड़ना चाहिए।
जीत पर अगर ताली मिलती है तो हार के बाद की गाली भी हजम करनी होगी। लेकिन ऐसा देखा नहीं जाता है। भाजपा हर चुनावी जीत का श्रेय प्रधानमंत्री मोदी को जरूर देती है लेकिन पराजित होने पर समीक्षा के नाम पर जिम्मेदारी से कन्नी काट जाती है।
दक्षिणी राज्य कर्नाटक की पराजय को भाजपा किस हद तक हजम करेगी यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। मगर चुनावी नतीजों से भाजपा को भी सबक लेने का समय आ गया है। केवल कुछ खास नारों के बूते चुनाव जीतना संभव नहीं है।
इस देश की स्वाभाविक जीवन धारा केवल नारों पर आधारित नहीं है। आम तौर पर देखा जाता है कि जितने भी गैरभाजपाई नेता हैं सबको किसी न किसी तरह से केंद्रीय एजेंसियों के दफ्तरों के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं, लेकिन अतीत में घोटाले कर चुके कई लोग हैं जिन्होंने भाजपा का झंडा थामा और उनके सारे दाग धुल गए। केंद्र में बैठी सरकार को इस तरह की सोच से बचने की जरूरत थी। कम से कम बंगाल में कुछ ऐसे चेहरे हैं जिन्हें अतीत में कई चिटफंड घोटालों से जोड़ा जाता रहा लेकिन उन्हें भाजपा का साथ मिला और सारा कसूर माफ। अगर इस तरह के घपले करने वाले भी भाजपा की छतरी के नीचे आकर सुरक्षित महसूस करें तो जाहिर है कि जनता में रोष की संभावना होगी।
इससे इतर कर्नाटक चुनाव में हर चुनाव की तरह ही कहीं न कहीं धर्म का कार्ड खेलने की कोशिश की गई। सीधे बजरंगबली का नाम ले लिया गया। किसी देवी-देवता के नाम पर खोले गए किसी संगठन से देवी-देवताओं के प्रतीक को जोड़कर यदि लोगों को किसी खेमे में लाने की कोशिश की जाएगी तो इसे ध्रुवीकरण की सियासत ही कहा जाएगा। भाजपा नेतृत्व को समझने की जरूरत है कि बजरंगबली का नाम किसी दल या संगठन से जोड़ना महज इत्तेफाक हो सकता है। सियासी लड़ाई में देवी-देवताओं को निशाना बनाना सही नहीं है। और ताजातरीन बात यह है कि लंबे समय तक लोगों ने हिन्दू-मुसलमान की खींचतान देखी मगर महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, विकास या अन्य मुद्दों पर चुनाव लड़ने की कोशिश नहीं दिख रही।
जनता को अब घिसे-पिटे अंदाज में धर्म का हवाला देकर झाँसे में नहीं रखा जा सकता। कहना यही होगा कि भाजपा की कर्नाटक में पराजय के लिए जितनी कांग्रेस की लोकप्रियता जिम्मेवार नहीं है, उससे अधिक जिम्मेवार भाजपा की नीतियां रही हैं। लोकसभा चुनाव से पहले की यह तस्वीर निश्चित तौर पर भाजपा नेताओं की चिंता बढ़ाएगी। ताली जिन्हें मिलती रही है, पराजय की गाली के हकदार भी उन्हें ही बनना चाहिए।