आरक्षण की आग

भारत में जातियों का गणित बहुत जटिल रहा है तथा किसी भी वर्ग का कोई शख्स यही पसंद करता है कि उसकी जाति के लोगों को वरीयता दी जाए। मराठवाड़ा में भी वही सिय़ासत जारी है। पहले यहां हिंदूवादी दृष्टिकोण अपनाया जाता था, तब बालासाहेब का जमाना था।

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राजस्थान, हरियाणा, बिहार, उत्तर प्रदेश व अन्य दूसरे राज्यों की तरह ही महाराष्ट्र भी अब जलने लगा है। इस राज्य के बारे में यही समझा जाता रहा है कि यहां सबकुछ ठीकठाक चल रहा है तथा जातियों के नाम पर यहां कोई विवाद नहीं हुआ करता है। लेकिन महाराष्ट्र में भी मराठा लोगों ने जिस तरह से आरक्षण के लिए आगजनी शुरू की है तथा जिस पैमाने पर सरकारी संपत्तियों को नष्ट किया जा रहा है, उससे यही लगता है कि यहां भी जातियों की सियासत ने अपना विकराल रूप ले लिय़ा है।

इस प्रकरण में सबसे पहले जरूरी यह है कि इसकी वजह को समझा जाए। कहीं स्वाभाविक रूप से तो कहीं अस्वाभाविक या कृत्रिम रूप से जाति की सियासत चल पड़ी है। यदि पीछे मुड़कर देखें तो मणिपुर की घटना भी अभी हाल की ही बात है जहां मैतेई समुदाय को अनुसूचित जाति की सूची में दाखिल करने के अदालती आदेश के बाद हिंसा फैली थी। वहां कुकी समुदाय के लोग अचानक उग्र हो गए और हालात इतने बिगड़े कि आज भी शांति नहीं लौट सकी है।

जातियों का गणित

भारत में जातियों का गणित बहुत जटिल रहा है तथा किसी भी वर्ग का कोई शख्स यही पसंद करता है कि उसकी जाति के लोगों को वरीयता दी जाए। मराठवाड़ा में भी वही सिय़ासत जारी है। पहले यहां हिंदूवादी दृष्टिकोण अपनाया जाता था, तब बालासाहेब का जमाना था। बाल ठाकरे के कद के आगे किसी की बोलने की हिम्मत नहीं होती थी। लेकिन जिस तरह महाराष्ट्र की सियासत का चेहरा बदला, उससे साफ हो गया था कि मराठी जनमानस एक न एक दिन यही रास्ता अपनाएगा।

दरअसल पहले सरकार की ओर से मराठा समुदाय को ओबीसी का दर्जा हासिल था लेकिन एक अदालती आदेश के बाद उस सरकारी फरमान को निरस्त कर दिया गया। जातियों के गणित के आधार पर मराठा समुदाय की कुनबी जाति के लोगों की दलील है कि सुल्तानी शासन में आजादी से पहले तक उन्हें ओबीसी का दर्जा हासिल था। ओबीसी के दर्जे में आने के बाद उनका भी सामाजिक और आर्थिक स्तर दूसरों की तुलना में बेहतर हो सकता है।

इसे गलत नहीं कहा जा सकता। लेकिन समस्या यह है कि देश की राजनीतिक पार्टियों का गणित अलग-अलग है। पहले समुदाय की सिय़ासत होती है, उससे बात नहीं बने तो जाति की सियासत होती है। जातियों के आधार पर लोगों को इतने टुकड़ों में बाँट दिया जाता है कि एक वर्ग दूसरे को अपना शत्रु मानने लगता है।

सियासत करने की जल्दबाजी

महाराष्ट्र की आग कुछ इसी मकसद से भड़काई गई है। वैसे, राज्य सरकार ने इस दिशा में सर्वदलीय बैठक के जरिए किसी ठोस समाधान की राह तलाशने का जो संकल्प लिया है, उसकी सराहना की जानी चाहिए। लेकिन ईमानदार कोशिश के बगैर इस समस्या का समाधान संभव नहीं है। इस आग ने उन तमाम राज्य सरकारों को भी सावधान कर दिया है जिन्हें जातियों के आधार पर सियासत करने की जल्दबाजी हो रही है।

खासकर बिहार सरकार को लिया जा सकता है जिसने हाल ही में जातिगण जनगणना के आंकड़ों को सार्वजनिक किया है। जातियों की रह-रहकर उठने वाली इस आग की लपटों पर नियंत्रण पाने की सर्वमान्य कोई राह निकालने की जरूरत है। देर हुई तो अनर्थ होगा। इस दिशा में महाराष्ट्र के साथ ही केंद्र सरकार को भी गंभीरता से विचार करना होगा।